tilak kare raghuveer

नहीं यदि मेरा त्रास हरोगे
तो प्रभु ! व्यर्थ न अपनी शाश्वतता का दंभ भरोगे

मैंने तुम्हें पिता है माना
निज को अमर अजर ही जाना
चाहे भी यदि काल मिटाना

दौड़ न बाँह धरोगे

ढलता देख दिवस क्षण क्षण में
है आतंक भर रहा मन में
श्रद्धा-ज्योति जगा कर मन में

कब, प्रभु! अभय करोगे?

क्यों मैं, नाथ! तुम्हारे रहते
जीऊँ यह मिथ्या भय सहते!
कभी कान में तो आ कहते

’मैं सँग हूँ, न मरोगे’

नहीं यदि मेरा त्रास हरोगे
तो प्रभु ! व्यर्थ न अपनी शाश्वतता का दंभ भरोगे