tilak kare raghuveer

मन मेरे! नीलकंठ बन
विष की पीड़ा झेल स्वयं में, करता रह मधुवर्षण

तेरे ही कर्मों का फल है
जो तुझको यह मिला गरल है
यदि निज प्रभु पर प्रीति अटल है

यों न विकल हो क्षण-क्षण

संकट दे जितने जी चाहे
काल न तेरा अंतर दाहे
बढ़ता चल निज टेक निबाहे

बरसें फूल कि पाहन

दृढ़ अश्वत्थ विटप-सा तनकर
जीवन के हिम-ताप सहन कर
दुख तेरा पलकों से छन कर

बने अधर पर गुंजन

मन मेरे! नीलकंठ बन
विष की पीड़ा झेल स्वयं में, करता रह मधुवर्षण