tilak kare raghuveer

मुझे फिर है इस जग में आना
मुक्ति उसे कब भाती जिसने स्वाद प्रेम का जाना!

दैव यही बस दया दिखाये
जाते समय न मन अकुलाये
जो होना हो झट हो जाये

पड़े न अश्रु बहाना

चाहे जहाँ वास दो दिन हो
फिर न लौटना यहाँ कठिन हो
सिर पर चढ़ा कृपा का ऋण हो

सेवक का हो बाना

प्रेम-भक्ति का पाठ भुलाऊँ
स्रष्टा को न सृष्टि में पाऊँ
मैं तो तभी ढूँढने जाऊँ

कोई और ठिकाना

मुझे फिर है इस जग में आना
मुक्ति उसे कब भाती जिसने स्वाद प्रेम का जाना!