tujhe paya apne ko kho kar

थक गया मैं ये हार बनाते
जब तक एक फूल गुँथ पाता, चार फूल कुम्हलाते

बाँहें शिथिल, उंगलियाँ थरथर
ज्योति नयन की क्षीण, क्षीणतर
चले आ रहे इन्हें पहनकर

जो फूले न समाते

वह विराट् जो हार बनाता
वह भी क्या उनसे कुछ पाता
जिनके लिये गूँथकर लाता

वे ही ठहर न पाते

पर असंग वह, मैं दुर्बल-चित
क्या फल बैठ इन्हें गूँथूँ नित
यदि वे ही न रहे जिनके हित

सज दूँ कवि के नाते

थक गया मैं ये हार बनाते
जब तक एक फूल गुँथ पाता, चार फूल कुम्हलाते