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सुरसरि-तट पर जहाँ धरे खग-हार विनत-दृग-तारा
यमुना-सरस्वती-सी मिलती सांध्य तिमिर की धारा
एक किशोर युवक बैठा था तरु का लिये सहारा
पूर्ण चन्द्र-सा सेवित फणि-सी लहरों की मणि द्वारा
अपलक दृग-नभ मधुपान्वेक्षी मुँदते सांध्य कमल-सा
वर्ह-पुच्छ या जल-पट-अंकित छाया-चित्र तरल-सा
शतधारा गिर रहा प्रतीची में मरीचि-द्रव जल-सा
सुरधनुषी घन-कनक-सेतु था आर-पार झलमल-सा
कितना था उद्वेग-चपल-उर, कौन बता यह सकता!
रह-रह दृष्टि उठा दीपक-सी मार्ग विकल था तकता
पुलकित, चुप, गंभीर कभी हो पागल-सा कुछ बकता
फेनिल ज्वार-सदृश फिर आता तट से उठ जब थकता
लहरों पर शतदल-सा जिसका पगतल छाया-प्रभ था
नील मधुप-माला-सा उर पर मेघोंवाला नभ था
कर-रवि-दीप जल रहा जिसमें एक उदास शलभ था
गूँथ किरण-कच चली अरुणिमा, उड़ता पट-सौरभ था
चित्रित जल पर गृहोन्मुखी लघु जलदों-सी नौकायें
भीत-चरण पवनाभिसारिका मुड़ती दायें-बायें
तम-तमाल तट के तरुओं-सा झुकता कर फैलाये
वंदी जुगनू-सी थीं जिनमें बिंबित व्योम-विभायें
उदित पूर्णिमा-सी थी सहसा सोने की परछांई
मेघ-अलक खोले बिजली-सी एक बालिका आयी
नत चंपक पलकें ज्यों विधु पर तितली बैठ लजायी
नील वसन से फूट रहीं थी तन को स्वस्थ गुराई
नग्न भुजायें, तनु झंझागम-स्रस्त शालि के द्रुम-सा
साँस-साँस में फूल रहा था उर अधखिले कुसुम-सा
छाया के मिस चरणों में सौंदर्य झुका गुमसुम-सा
पूर्ण चंद्र ज्यों बैठ गया था भाल-मध्य कुंकुम-सा
झुकती ज्यों आपाद मुकुलिता लता वसंतोद्गम में
स्वर्गंगा उतरी हो मानो गंगा के संगम में
चकित, ठिठक, गिरि-गुहा-निनादित घन-गर्जन-विभ्रम में
सरिता ज्यों विधुमुखी सिंधु से मिलने के उपक्रम में
पय-सी ग्रीवा मुड़ी अधर पर थी न चपल स्मिति-रेखा
राहु-ग्रहण के भय से मानों काँप रही विधु-लेखा
भाग्य मलीन मृग-सा जिसमें निज भीत युवक ने देखा
सिसकी, वीणा-झंकृति, संमुख चित्र खिँचा पहले का
बँध जाती चेतना-चंद्रिका केसर के डोरों से
दुग्ध-कुमुद-धारा बहती थी चितवन की कोरों से
नयन नलिन नत छिपा रहे थे मुँह अपना चोरों-से
काँप रहा था तनु मृणाल-सा जल के हिलकोरों से
‘लज्जित भौंह लिये जो छिपती रही सदा सुकुमारी
आज न वह पिक-सी परवशता कहने की अधिकारी
मेरे प्रणय-वसंत आज लो तुम जीतो, मैं हारी
ये हिम-सजल कपोल तुम्हारे, मैं संपूर्ण तुम्हारी
लिये धड़कता हृदय कभी मैं फिर न यहाँ आऊँगी
प्राण तुम्हारी यह मुख-छवि भी देख नहीं पाऊँगी
अब न कभी रख शीश तुम्हारे उर पर मैं गाऊँगी
दीप-शिखा-सी कल प्रभात के साथ चली जाऊँगी
देखो तुम अतिशय भावुक हो, मन का धैर्य न खोना
रोना हो तो श्याम निशा में मौन मधुप से रोना
दास परिस्थितियों का सब को ही पड़ता है होना
यही बहुत, मेरे हित मन का रखना कोई कोना’
झलमल थी नत छाया जल में चूर्ण हुई चपला-सी
नभ-गंगा में त्ताराबलि-मय तिरती इंदु-कला-सी
युवक अधीर देखता था हट चितवन समुज्ज्वला-सी
फूट पड़ी कातरता उर की वाणी में, सजला-सी
‘रानी यह कैसा परिवर्तन! कैसी करुण उदासी!
मौन, विषण्ण, किलकती आती जो सरि-तीर उषा-सी
पारे-सा चल वक्ष, अधर की अरुण पँखुरियाँ प्यासी
सुख-सुहाग की रजनी के वे फूल हो गये बासी!
‘आज अधिक सुंदर लगती हैं ये आखें रतनारी
प्रिये! सत्य ही यह जीवन की अंतिम भेंट हमारी!
तुम बंचना नहीं तो क्या हो, ओ रहस्यमय नारी!
अपने हाथों आप चिता पर सोने की तैयारी!
‘भूल गयी वह प्रथम मिलन जब नभ के नील नखत-सी
इन कुंजों में आयी थी तुम लेकर हँसी रजत-सी!
वह संकोच, मधुर पीड़ा, वह मुख-छवि लज्जानत-सी
खिलती थी जब हृदय-कुमुदनी परिचय में स्वागत-सी
‘भूली वे लंबी दुपहरियाँ।! धवल चाँदनी रातें’
वह मनुहार! हँसी वह खिलखिल ! वंक भ्रुओं की घातें |
प्रेममरी मीठी चितवन से चोरी-चोरी बातें!
सूना कक्ष! शरद की संध्या! छत पर की बरसातें’
‘दो प्राणों का विश्व, आह! वह कितना मधुर बना था!
मृदु रहस्य-सा जिस पर स्मिति का स्वर्ण वितान तना था!
उषे! उसीमें तो मन का सुख मूर्त हुआ अपना था
वह उन्माद, हँसी, वह जीवन, कह दो सब सपना था!
‘टूट जायगा हृदय काँच-सा ठोकर यों न लगाओ
नभ का कुसुम छुला निर्धन को धरती पर न गिराओ
जलते प्राण-शलभ को शीतल चितवन से नहलाओ
भरी नदी-सी जीवन-पथ में आकर लौट न जाओ
‘मौन, मौन क्यों अब भी मेरी ओ पत्थर का रानी!
युग-युग से चलती आती क्या जग में यही कहानी!
छवि की मृग-तृष्णा में तड़पे यौवन-मृग अज्ञानी
हारूँ तुम से, प्रिये! भाग्य से जिसने हार न मानी!’
मेघ-गिरा के पूर्व चौंकती जैसे विद्युत-बाला
खाकर चोट कढ़े चंदन से ज्यों चिनगी की माला
‘प्रियतम, प्रियतम! ज्यों-त्यों अब तक मन का बोझ सँभाला
देखो, दूर रहो, कंपित कर, छलक न जाये प्याला
‘नव यौवन-मालती-मुकुल के ओ मधुकर दीवाने!
उड़ न सकूँगी मैं तितली-सी प्रेम तुम्हारा पाने
नारी का सर्वस्व हृदय दे दिया बिना कुछ जाने
शेष रहा फिर क्याह देने को जाऊँ जिसको लाने!
‘एक बार ही नारी का मन नव कदली-सा फलता
एक बार ही इस उपवन से मधुर वसंत निकलता
साथी विश्व-विषमता विष-सी, पर किसका वस चलता !
जीवन भर स्मृति लिये तुम्हारी हृदय रहेगा जलता
‘जीवन नभ के इंदु! तुम्हारी मैं ज्योत्स्ना सुकुमारी
मेरे बाल-वसंत! अरुण मैं पाटल कली तुम्हारी
तुम से दूर चली रख मन पर एक शिला अति भारी
यौवन के जागरण-प्रहर की मोह-निशा-सी नारी’
‘अकलुष दीप-शिखा-सी नारी, तुम जीवन-तम-पथ पर
आयी जो उन्मद संध्या में नव यौवन के रथ पर
वक्र भवें, हँसती, फैलाये ये मृणाल-से श्लथ कर
मुड़ो न यों नत-मुख छाया-सी मोह-निशा के अथ पर
‘मोह-निशा तुम, स्वप्न नखत-से तोड़ न दो ये रानी
बेसुध प्राण जले जाते हैं देख दृगों में पानी
छोड़ गये पीछे सुख के दिन केवल करुण कहानी!
अंगारों से खेल रहा था मैं पथभूला प्राणी!
आत्म-समर्पण भी यह कितनी व्यंग-भरी छलना है।
जीवन भर ज्वाला पथ में फिर एकाकी चलना है
स्मृति में इन सुखमय घड़ियों की केवल कर मलना है
भ्रांत नखत-सा युग-युग मन की पीड़ा में जलना है
‘दो बिछुड़े जलते प्राणों की भेंट कहाँ फिर होगी?
देख मुझे भय-कंपित पथ पर कभी सहारा दोगी?
कहती, ”जीवनधन ! क्यों इतनी विरह-वेदना भोगी ?”
कभी पराजित प्रेम-पथिक को फिर से अपना लोगी?
अथवा भूल मुझे जाओगी गति-मय जग-उत्सव में ?
पुलकों के सौरभ-धन से घिर उस अभिनव अनुभव में ?
खो जायेगी लहर चेतना चल भव-चिंतार्णव में?
बन अजान चितवन देखोगी, प्रिये? मिलूँगा जब मैं?
मुड़ो हाय, अब भी क्या बिगड़ा ! सिसक रहा उडुपति है
पग की अटपट गति में लिपटी ज्योत्स्ना छायाकृति है
सजल कपोल, हिंडोला अंतर, पग की अटपट गति है
कैसे भला छिपे जो मन का भाव किसीके प्रति है!
‘शरद-पूर्णिमा-सी तुम मेरे मन-मंदिर में आकर
लौट न जाओ उलटे पाँवों आशा-दीप जलाकर
आओ, नव संसार बसायें यह संसार मिटाकर
पहला प्रेम-प्रभात हँसें फिर युग-युग की जड़ता पर
‘आप बने अपने बंधन हम, तोड़ सभी सीमायें
मानव मन की उज्ज्वलता के गीत विहग-से गायें
जीवन-पल्लउव गूँजे ऊपर, नीचे, दायें, बायें
बस मानवता धर्म एक है, अन्य सभी छलनायें
‘नारी का संकोच, आज यह कैसी मधुमय पीड़ा!
नत आकर्ण भँवें, बिम्बाधर कंपित, दृग में व्रीड़ा
निर्दयता से किसने मन के तारों को है मींड़ा!
पगली! यों की जाती होगी, तरुण हृदय से क्रीड़ा!’
चंचल ताराम्बर-सी जिसको अंचल-छाया फहरी
भावों से टकरा ज्यों सहसा लौट पड़ी सरि-लहरी
‘हाय यही सुनने को पथ पर नव परिचय-सी ठहरी
देख रहे लोहित दृग फाड़े ये पल्लरव के प्रहरी
आँसू की कज्जल सरितायें रोते-रोते सूखीं
विधु-मुख पर फाल्गुन-घन-अलकें उड़तीं रूखी-रूखी
सज-धज आयी यहाँ विवशता लेकर नयी बहू की
मान आज किस मुँह से करती मैं दर्शन की भूखी!
मान, गुमान अजान हृदय के आज सभी ज्यों सपने
आज परायी होने को जाती हूँ, मेरे अपने!
तब कैसा होगा, मछली-सी अब से लगी तड़पने!
ऊष्मा-सी यौवन-नभ पर जब और लगूँगी तपने!
कुसुम-सेज काँटों से होगी अधिक मुझे दुखदायी
देखूँगी उन्मत्त करों की क्रीड़ा ज्यों पथरायी
लौट चली, प्रियतम! जो भादों की बदली-सी आयी
भूल न जाना कर्म-जगत में नारी की कठिनाई
पीड़ा का पाथेय पिये मैं पलती मौन रहूँगी
दीप-शिखा-सी ज्योति लुटा कर जलती मौन रहूँगी
नयनों के पानी में घुलती-गलती मौन रहूँगी
मन को मृदु सपनों से छलती चलती मौन रहूँगी
याद आ रहा जब आया था चलकर दूर थका-सा
मेरे प्राण-सरित के तट पर एक पथिक अति प्यासा
नयनों की भाषा में कहना अंतर की अभिलाषा
वह आशा, उन्माद, स्वप्न वह, कैसी आज दुराशा!
मन की यह परवशता पाये उसे न जिसको चाहे
तन-मन से दो की हो नारी, किसका साथ निबाहे!
मर-मर कर जीना दुष्कर है, मरने की सौ राहें
साथी रक्त न हिम-सा कर दें ठंडी-ठंडी आहें
जीवन में जो मंत्र लिया है उसे निभाते रहना
झंझाकुल तरणी में भी हँस गाते-गाते बहना
शून्य निशा बन आऊँगी मैं, मन की बातें कहना
स्मृति-बयार बन जीवन-वन में आते-जाते रहना
‘दूर क्षितिज से गीत तुम्हारा तिरता तिमिर, कुहासे
खिड़की पर आता सुन लूँगी मैं उठकर शैया से
प्रतिध्वनि बन निकलेंगी उर से आँसूभरी उसासें
पी जिनको काँपेंगे थरथर अधर सुधा के प्यासे
‘आयी थी मैं, देव! तुम्हारे पग आँसू से धोने
नखत-ज्योति लो चली तिमिर की लहरों में लय होने
नारी की क्याज बात, पुरुष जब लगे तुम्हीं यों रोने
जीवन-वेदी पर जाती जो अपना सब कुछ खोने’
करुण, सभीत युगल तट से फिर मन के छोर भिगोती
रुद्ध-कंठ मानो सरस्वती अंतःसलिला होती
अश्रु-नखत-माला पहने थी पथ पर ज्योत्स्ना रोती
पपिही कह ‘पी कहाँ? पी कहाँ?’ उड़ती सोती-सोती
निशा नील गिरि पर पहने हिम-नखत-हार चलती ज्यों
वकुल वनों में मधु-मरंद-बोझिल बयार चलती ज्यों
पहली प्रेम-व्यथा अंतर के आर-पार चलती ज्यों
तट-तरु से मिल नदी विफल बाहें पसार चलती ज्यों
कलिका पर हिम-कण-सी जिसकी काँप रही थी छाती
स्वर्णिम घन-छाया-सी जल में दूर बही-सी जाती
व्याकुलता पहला चुंबन भी माँग नहीं थी पाती
सजल नयन-छवि अंतिम भी स्मृति-शेष रही ही जाती
तम, सुदूर पुर, नूपुर-सी वन-झिंगुर-झाँझें बजती
पगतल पर नागिन-सी लहरें फण फुफकार गरजतीं
विरहिन विरह-निशा कपिशा-सी चली दिशा-पट सजती
चूर्ण चपल चेतना-चंद्रिका उड़ती पथ की रज थी
मुग्धा-सी गूँथे दव-गुंजा उर्मिल नील चिकुर में
माँग टूटते तारे से रच मुख-शशि-खचित मुकुर में
अश्रु-सजल ध्वनियाँ ले जाती बहा पार्श्व के पुर में
सरित सवेग समाती जाती अंधकार के उर में
‘हृदय! विश्व-नटशाला का तू पागल अभिनेता है
देख किसीकी बाँकी चितवन गृह से चल देता है
सब कुछ गँवा, कसक, दुख, पीड़ा बदले में लेता है
नीरभरी नयनों की नौका मरुथल में खेता है
‘ओ किशोर यौवन के सपने! मधुर रहा तू कितना!
विभ्रम था जब सरल दृष्टि का सृष्टि-प्रलय के जितना
यह उन्माद, जलन यह, जिस पर स्नेह चढ़ाया इतना!
जीवन का मधु-स्रोत उमड़ कर मरु-थल में था रितना!
चंद्रानने! पहन किरणों-सा अश्रु-हार ग्रीवा में
वन में किधर गई तुम जलता हृदय हाथ से थामे?
मैं चकोर फिर रहा चतुर्दिक घिरा क्षितिज-सीमा में
यह तड़पन, नैराश्य व्यथा यह, कैसे सह लूँगा मैं!
कहाँ भाग जाऊँ? ज्वाला यह मन की जहाँ बुझेगी!
किसकी उच्च हँसी, चल चितवन चकित मुझे कर देगी !
अन्य किसी के स्वागत में वे पल-पँखुरियाँ बिछेंगी।!
बहुत हुआ तो मेरी स्मृति ठंडी साँसें भर लेगी!
मेरा प्राप्य रत्न सम्मुख से अन्य उठा ले जायें।
विफल खींचते रहें नयन-घन पथ पर जल-रेखायें |
यही न्याय! दो जीवन तड़पें फैला तृषित भुजायें
कर्ता कोई नहीं सुने जो अश्रु पोंछने आयें।
भाग्य और ईश्वर दोनों हैं, मनुज! पराजय तेरी
भूल गया मैं मूढ़, सफलता वीर-पदों की चेरी
बैठ गई पथ में थक नारी दुर्बलता से घेरी
डुबो न दे, ओ हृदय अभागे! डगमग नौका मेरी
यह यंत्रणा! रश्मि पकड़े मैं विधु पर चढ़ जाऊँगा
एक अन्य आकृति वैसी ही भू पर गढ़ लाऊँगा
फणि-सा मणि खोकर कैसे पर आगे बढ़ पाऊँगा!
रुको, तुम्हारा चित्र विहँसता दृग में मँढ़वाऊँगा
‘उसे देखता सूनेपन में तम-मय पलके मींचे
सो जाऊँगा रोता-रोता इन लहरों के नीचे
बाँह बढ़ा जो लिये जा रहीं मुझे अतल में खींचे
प्रिये! लौट आयी क्यात तुम ही अधर हँसी से सींचे?
“पर आँखों से अश्रु बह रहे यह मर्मातक हँसना!
चित्रित ज्यों नभ पर मेघों का सुरधनु-सहित बरसना
साथ तुम्हारे हँसतीं लहरें नील-अश्रु-जल-वसना
बजती मरण-वाद्य सी जिनकी कृश कटि बुद्बुद-रसना
पल्ल व-से हिल हाथ तुम्हारे मुझको रोक सकेंगे!
सजल कुसुम-से नत नयनों को कैसे बहला देंगे!
यह अलकों की गंध जुही-सी श्वास तृषित पी लेंगे
इस लावण्य-मृदुल-मुख के सौ चुंबन एक बनेंगे
काल क्रूर हारिल पर पीछे मुँह कर कभी न उड़ता
कर्म-जगत में खोया साथी वापस कभी न मुड़ता
जग में होती पूर्ति सभी की, एक हृदय कब जुड़ता!
अब भी पामर प्राण नहीं यह तन से हाय बिछुड़ता!
वह प्राण साथ-साथ चलने का जीवन के इति-अथ पर
मुख-छवि-दीप्त शलभ-सा मुझको छोड़ गयी तम-पथ पर
ज्योति-स्मिते ! पहुँच पाऊँगा मैं तुम तक यों श्लथ-पर ?
अरे, चढ़ाया ही क्योंल था पहले निज ज्वाला-रथ पर?
वह अनुनय, मनुहार, लहरियों-सी मधुहँसी न बाँकी
मरु-सरिते, तट के तरु-सा मैं आज खड़ा एकाकी
कितनी मादक थी वह भोली चितवन सुंदरता की
मैंने तो न बिगाड़ा था कुछ, क्योंह यह निर्दयता की!
सूना जीवन, लक्ष्य-दिशा है धूमिल तुमको खोकर
एक मधुर सपने से मानो जाग रहा हूँ सोकर
कुछ दिन तक फूला फिरता था हृदय किसीका होकर
धरती पर गिरना था यों वह, खा उसकी ही ठोकर
साँसों में भर साँस, आँख में आँखें डाल, उलझती
दूर गयी तुम, स्मृति अंतर में पग-ध्वनि बनकर बजती
कितनी शेष प्रणय क्रीड़ायें विरह-वेदना सजती!
हाय! विफलता-सी सब पर यह तम की लहर गरजती
उड़ आँधी के साथ गगन के तारों में छिप जाऊँ
लहरों में बहता सागर में मन की जलन बुझाऊँ!
घायल पंछी सदृश दिशाओं से टकरा फिर आऊँ!
मेरे दृग की ज्योति! कहाँ अब कैसे तुमको पाऊँ!”
धीरे-धीरे भीग रही थी रजनी तारोंवाली
दूर नगर पर नीरवता ने अपनी चादर डाली
तम-मय तट के ग्राम, सड़क ज्यों सोयी साँपिन काली
मौन खड़े प्रहरी-से वट-तरु करते थे रखवाली
उड़ती गृह-सौधों से आतीं वीणा की झंकारें
नभ के नयनों से आँसू-से चू पड़ते थे तारे
चक्रवाक युग से बिछुड़े तट, श्यामल बाँह पसारे
सुनते थे व्याकुल विरही की करुणा भरी पुकारें