usha

इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्छल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!

उर  को आशा  के गान  दिये
आशा  को  नूतन  प्राण   दिये
प्राणों को वर क्या-क्या न दिये

रँग दिये स्नेह से दिग्-दिगंत

अब  भी  कोई  दूरस्थ  कुंज
तुम खड़ी जहाँ पर ज्योति-पुंज
अधरों पर स्मिति के रजत गुंज

नयनों में मादकता अनंत

जीवन का चिर-चंचल प्रपात
मैं करता सबको आत्मसात
तुम बन सुषमा की मलय-वात

बरसाती चिर- यौवन -वसंत

इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्छल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!