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‘परिमल-सा पूरित प्रेम जहाँ, यह कुटिल कीट
कब आ बैठा, उड़ रहा उड़ाये से न ढीठ!
जीवन का इसने चूस लिया रस-रूप-रंग
क्षण में बुदबुद-से हुए, हाय! वे स्वप्न भंग
क्या हृदय कमल-सा तुझे रौंद इसके सँग दूँ।
मैं अपना शोणित बहा हाथ अपने रँग लूँ!
उड़ती घन-शावक अलकें, चंद्रोज्ज्वल ललाट
ज्योत्स्ना-सी पलकें, नील नयन बिंबित-विराट्
तरुणी-तनु शरद-निशा प्रेमोदधि की हिलोर
बढ़ती जिस ओर चकोर सदृश पातीं न छोर
त्तम-रुद्ध-द्वार वह आज उठाता ज्वार अन्य
ईर्ष्या, विराग, संक्षोभ, विकलता रोष-जन्य
विकसित पाटल-मुख, पृथुल वक्ष, कटि ज्यों मृणाल
गति मंद, स्नेह से दीप्त, चकित लोचन विशाल
दुर्बोध रूप, नारी का मानस-क्षितिज गूढ़
तृष्णाकुल फिरता यौवन मृग-सा स्मिति-विमूढ़
भुजपाशों में बँध सका तड़ित का खर प्रवाह !
मलयानिल पर एकाधिकार की व्यर्थ चाह
‘मिथ्या मन तेरा मोह, भावना-तुष्टि मात्र
यह गात्र कुसुम-सा सेवा-तत्पर अहोरात्र
लावण्य बिखेरे चलता जो निज आस-पास
दीपक की लौ-सा बाँट रहा स्मिति -का प्रकाश
किसका था? जाने कौन करेगा फिर सनाथ
जीवन-पथ पर, तुझसे विधि-वश यदि छुटे साथ ?
वचना दुग्ध-सी दृष्टि, मुग्धता का श्रृँगार
मधुभरे वचन वे, प्रणय-निशा में प्रथम बार
हृदयों का मधुर मिलन, नयनों का संभाषण
परिचय प्राणों का, लाजभरा स्नेहालिंगन
उन्माद मधुर, अपनत्व-भाव, गृह का प्रकाश
वंचना हाय! नारी का स्मितिमय भ्रू-विलास
विश्वास हृदय का शिशु-सा सरल, विवेकहीन
खींचा करता जो चित्र प्रणय के नित-नवीन
चंचल भावना नटी का कर-कंदुक अशांत
निशि-दिवस, ज्वलित नक्षत्र-पुंज-सा भ्रमित, भ्रांत
निर्लज्ज, कृतघ्न, कुबुद्धि, कुटिल दृग-मधुप-संग
फिरता बन-वन कस्तूरी-मोहित ज्यों कुरंग
जिसकी दुर्धर्ष प्रतिज्ञा, पानी की लकीर
मिट जाती मन के होते ही क्षण-भर अधीर
निज रूप मुकुर में धरने-सा निष्फल प्रयत्न
संतुष्ट जिसे करने का, चिंता-मोह-मग्न
जो देख न सकता अधो-ऊर्ध्व, आगे-पीछे
जाता, ले जाती जिधर अंध ममता खींचे
विश्वास प्रेम का चंचल लहरों के समान
अनसमझ, अकारण, चिर-अनियंत्रित, अप्रमाण
तिरना जिसमें डूबना पहुँच कर बीच धार
विष-अमृत, व्यथा-वरदान, जलन शीतल तुषार
मानापमान, सत्पात्र-कुपात्र, अनीति-नीति
मर्यादा से विपरीत सदा जो चले रीति
धिक् प्रेम! स्वार्थ के जनक, कनक के भवन दिखा
सीधे नयनों को भी तूने छल दिया सिखा
कर्तव्य-ज्ञान-हत नारी का सर्वस्व छीन
कितने घर तूने बना दिये सुख-शांति-हीन
भव-सूत्रधार, रक्षक-भक्षक, फिर कहाँ वास!
धिक् स्खलन बुद्धि के बंध रूप के अंध दास
‘रो पुरुष अभागे ! नयनों का विश्वास मान
हँसकर तूने कर दिया जहाँ सर्वस्व-दान
वह छल था, उस छवि की मिल पाती छाँह भी न
वह प्रेम कागजी फूलों-सा था गंध-हीन
बन गयी पतन स्वातंत्र्य-श्रृंखला उन्नति की
वह चिर-प्रहेलिका नारि प्रगतिमय संसृति की
“जिसको कर तूने केंद्र रचा जीवन तिल-तिल
इतिहास, कला, साहित्य, स्वीय-पर, भाव निखिल
वह थी अति दुर्बल, जल-सी चंचल छद्ममयी
तेरे चिर-पूजन से बन देवी-मूर्ति गयी
जिस शाखा पर था नीड़, वही गिर गयी टूट
पी गया प्रणय-पीयूष समझ तू कालकूट
‘मैं तो न सँभाल सकूँगा यह अंतर्ज्वाला
चिंता, शंका, जिसने उर छलनी कर डाला
स्पृहणीय मृत्यु, जड़ता कर दे जो शांत मुझे
अंतर का यह दावानल तो दुर्दांत बुझे
उड़ जाऊँ मैं यह छलना-मय संसार छोड़
पा किसी दूर नक्षत्र-लोक की शांति-क्रोड़
“होता न जहाँ अपनों से यों विश्वास-घात
उर-शूल छिपाये नहीं फूल-से मृदुल गात
सौंदर्य जहाँ छलहीन, प्रेम आधार-शिला
निर्मित जिस पर युग प्राणों का चिर-सुदृढ़ किला
स्तर पर स्तर नूतन मोह, नवोढ़ा-सा हुलास
पीने से बढ़ती नित्य हृदय की जहाँ प्यास’
“चिंता यह कैसी आज हृदय को रही चीर?’
सीधा मर्मस्थल पर आ बैठा सधा तीर
उफनाते पय में मानो पड़े तिक्तता-कण
करता विडंबना-सी भावों की प्रमुदित-मन
बोला राजीव वधिक को सम्मुख खड़ा देख
कौतुक-कुंचित-दृग मुख अंकित-मृदु-हास्य-रेख
‘चिंता मुझको! तुमसे जिसके स्नेहालु मित्र,
हो गया मित्र का शब्द जिसे पाकर पवित्र!
था सहज स्वभाव अयाचित करना अनुगृहीत
मुझ पर तो कृपा विशेष तुम्हारी रही, मीत!
सेवा निःस्वार्थ, दिवस-निशि, एक लगन, मन से
मैं उऋण सकूँगा हो कृतज्ञता के ऋण से।
‘तुम जग-जन सेवा-व्रती, विगत-निज-पर-विभेद
हम तुष्ट कर सकें तुम्हें, गर्व यह, नहीं खेद
बिक गयी देह यह गेह तुम्हारा, सखे! आज
दो चिंता-मुक्ति मुझे नयनों की ढकूँ लाज
उस ओर सदा-पावन तरुणी का उर कृतज्ञ
इस ओर, बंधु! तुम, कितना निर्मल स्नेह-यज्ञ !’
लज्जित-मुख, निष्प्रभ, कंपित-तनु, ज्यों कुहालीन
शिशिरार्द्र प्रभात खड़ा हो सरसिज-निकट, दीन
“विष बना बोलना, हँसना, वह निर्दोष दोष-
नयनों का, स्नेह-चपलता, मिथ्या-आत्म-तोष
सह सके न स्मिति-विनिमय भी ईर्ष्या-मलिन-प्राण !
पत्नीत्व न यह दासीत्व, स्वीय पल भी जहाँ न
‘धिक्, नारि! ढो रही जिसे भुला मानापमान
वह तेरा उर-प्रहरी सशंक, कर-धृत-कृपाण
सारे विचार, भावों पर कर एकाधिकार
कृत्रिम जड़-सी साँसें तुझको देता उधार
वह ढूह स्वार्थ का, बिका जहाँ तेरा विवेक
पत्थर को कर भगवान दिया सिर टेक-टेक
कुछ मन्त्रों से जीवन का सत्य कुचल जाये
धिक्, यह अधिनायकवाद सदा को जल जाये
नारी! मुक्ति का विधान रचूँगा तेरा, मैं
हर लूँगा मन का दैन्य, विराग, अँधेरा, मैं
अनुभूति हृदय की सत्य, वंचना माप और
आत्मा को दास बना देना है पाप घोर!
मन का विचार-संघर्ष स्वरों में पड़ा फूट
‘दिखलाते आँख मुझे, मेरा सर्वस्व लूट!
यह न्याय धन्य, पीकर न तुम्हारी प्यास बुझे!
देखूँ भी यदि जलपात्र, चोर का नाम मुझे!
भूला भविष्य का ज्ञान, भूत निश्चय सारा
अनुनय कातर नयनों का, आँसू की धारा
आया स्मृति में वह सांध्य-जाह्नवी-तट सूना
वह भाव समर्पण का, वह विदा, चरण छूना
वह यौवन का अनुरोध, भविष्यत्-की झाँकी
परवश मृग-से दृग सजल, झुकी ग्रीवा बाँकी
नस-नस में मृत्यु-यंत्रणा-सी भरती वह स्मिति
वह आलिंगन उद्दाम छुड़ाती छायाकृति
वे जावकमय पग, भीत कपोतों-से क्षण-क्षण-
कढ़ छिपते जो, कंपित हिम-वक्ष, विकल, उन्मन
निज प्रिया सहचरी देख गयी पर-अयनों में
प्रतिहिंसा जो जागी थी उस दिन नयमनों में
वह छूट पड़ी विष-विषिख-तुल्य सुख-विह्वल हो
घायल करती पौरुष के दुर्बलतम स्थल को
‘सुन लो कानों को खोल, उषा थी मेरी ही-
मानस-संगिनी, बने तुम निठुर अहेरी ही
हर विवश मृगी-सी उसे प्रेम के कानन से
वह तन से हुई तुम्हारी सदा, नहीं मन से
वे नयन मिले जो यहाँ युगों के बाद मुझे
मधु-शैया पर भी रो करते थे याद मुझे’
सहमी वाणी परिवर्तन का क्रम तीव्र आँक
सम्मुख वज्राहत तरु था ज्यों बेसुध, अवाक्
होती प्रकाश में जब जीवन की मुक्त जाँच
युग-रक्षित हीरा ज्यों कहलाये क्षुद्र काँच
खा उष्ण लौह ज्यों चोट बिखर जाता, घन से
अस्फुट-से स्वर फूटे रोषारूण आनन से
‘था भेद यही, नारी! नारी! तू सत्य वही
जो युग-युग से मानव की बुद्धि पुकार रही
पढ़ पाया कौन वक्र तेरी भ्रू-लिपि चंचल!
स्मिति में है रोष, रोष में प्रेम, प्रेम में छल
तू कनक-सर्पिणी थी, कितनी अभिलाषा ले
मैं सुमन-हार-सा तुझे गले में था डाले
‘मैं जड़ प्रतीक-सा जिऊँ अन्य का भाग छीन
अच्छा इससे, मर जाऊँ रहकर स्नेहहीन
चाहता प्रिया के तन-मन पर एकाधिकार-
प्रेमी तो, सह्य जिसे पल भी पर का विचार
वह पौरुष-हीन, क्लीव, यह मरण-कलंक भाल
मैं पूर्व देखने के, लूँगा आँखें निकाल
‘संकुचित मीत! अह, तुमने तो बस किया वही
जो अवसर पाने पर करता है कौन नहीं!
यह दोष तुम्हारा नहीं, पुरुष प्रस्तुत न कौन!
पग-चुंबन-हित, नारी को पा नत खड़ी मौन
नारी, धरती का वह सर्वोत्तम रत्न, आह
उसको पाने की किसके मन में नहीं चाह
‘परकीया-सी नित स्मिति से ढँक मन का लगाव
दोषी वह जिसने किया स्वीय पति से दुराव
दे साक्ष्य अग्नि का, भर्ता जिसको मान लिया
क्षण सुख के हेतु प्रवंचित जिसने उसे किया!
वासना- कीट उससी न कहीं होगी अपरा
लज्जित जिससे पत्नी की पावन परंपरा
‘दोषी पर मैं, आ दो हृदयों के बीच गया
तोड़ी वह कलिका जिसे अन्य था सींच गया
अनुराग-सरित-मुख रोक अजाने, सजल, दीन
यत्न से कुमारी-हृदय, रल-सा लिया छीन
पढ़ सका न नयनों की भाषा अनसमझ निरा
मृग-सा मरीचिका के पीछे दौड़ता फिरा
“तुम रहो, रहें वे सभी अहर्निश सेवारत
जोहा करती पतिव्रता पत्नियाँ जिनका पथ
जग में अवांछितों का न स्थान, द्रुत हो जितना
उनका विस्मरणशील निष्क्रमण सुखद उतना
मैं चला, जहाँ मेरा ममत्व पा सके तुष्टि
तुम रहो, रहे यह स्नेह-स्वर्ग-सौंदर्य-सृष्टि’
कर में कुचली आशाओं की मंजूषा थी
ज्यों सांध्य क्षितिज पर खड़ी पीत-मुख ऊषा थी
नत-पलक, प्रशांत, नील घन-से दृग ज्योति-हीन
तारों की जिनमें क्षीण मलिन आभा विलीन
जीवन-रथ ले ज्यों पहुँची नव संसृति-अथ पर
क्रंदद करती आत्मा अनंत सूने पथ पर
तरु-च्युत कलियों-सी आँखें थीं खोयी खोयी
मृत मीन सलिल में डाल गया हो ज्यों कोई
छाती मसोसती जैसे ओस-कणी हिम की
ढुल जाये पंखुरियों में पाटल रक्तिम की
फणिनी-सी मणि खोकर तम-पारावार-मग्न
थी विकल उषा पा गेह, स्नेह, संसार भग्न
सिहरा प्रभात जैसे ज्योत्स्ना-सित रजनी में
खँडहर कोई चलता हो दृग-सम्मुख धीमे
सुन कर कारा-छिद्रों से निर्णय जड़-देही
वंदी ने निज को मार लिया ज्यों पहले ही
तकता न तनिक मुख वधिक-क्रूर-स्वर-अंकुश का
फाँसी पर मंद-चरण आता हो शव उसका
पढ़ दूर क्षितिज पर क्रूर भाग्य-संकेत लिखा
बोली सहसा जैसे प्रभात की दीप-शिखा
“जीवन के कुसुमित कानन में बन शिशिर-पवन
आये थे तुम, झुक किया हृदय ने मधुर स्तवन
था ज्ञात न, सिर से हरित-पत्र अंचल उतार
वन-श्री-सी मुझको कर दोगे यों निराधार
“वन-श्री भी सजती पट नूतन फिरते वसंत
पर कंत बिना नारी ज्यों कलिका छिन्न-वृंत
फिर से जीवन का पाठ न पढ़ने में समर्थ
चिर-शून्य, अनावश्यक, अतीत-सी बिना अर्थ
मैं उन्हें गँवा, जीवित हूँ, निर्लज्जता घोर
होगी इससे बढ़ कर पृथ्वी के बीच, और!
‘तुम पुरुष, तुम्हें नारी का बस चाहिए स्नेह
क्षण में उजाड़ते और बसाते नया गेह
पर नारी-मन-मौक्तिक बिँधता बस एक बार
होती जीवन की एक दाँव में जीत-हार
सुन लो मुझसे यदि कभी किया हों तनिक स्नेह
उनको लौटाये बिना गेह यह नहीं गेह–
“मरघट यह, जहाँ धधकती एकाकिनी चिता
उँगली के पोरों पर दूँगी मैं आयु बिता
यह नहीं कुमारी का प्रलाप, पतिव्रत-धारी
पति-स्नेह वंचिता एक कह रही है नारी
लतिका ज्यों तरु से छुटी, वर्तिका, स्नेह- हीन
मैं हो जाऊँगी इस सूने गृह में विलीन
‘पर छोड गये जो मुझको पल भर में ऐसे
मानी वे फिर भी गये, फिरेंगे दिन वैसे!
सपना जीवन का टूट गया जो एक बार
फिर से जीवन का वह कर पायेगा श्रृँगार?
प्रेमी बन तुमने खूब निभाया, हाय! स्नेह
पल में बन गया क्षार, श्री-सुख से भरा गेह
‘मैं दुर्बल थी, संयम से किन्तु मढ़े थे तुम
विद्या, वय, बुद्धि, बंधु! सब भाँति बड़े थे तुम
खींची न, तभी क्योंम तुमने मर्यादा-रेखा
जब हँसती हुई मुझे आगे बढ़ते देखा?
समझाते उनको भी जो शोक काल्पनिक ले
प्राणों का युग-युग का संबंध तोड़ निकले
‘आतुर, अधीर भी क्षम्य सदा वे, दोषी मैं
जानती स्वभाव सदा थी उनका रोषी मैं
था स्नेह जहाँ, अंगार वहीं से कढ़ते थे
शिशु की पुस्तक-सा मुख वह लोचन पढ़ते थे
अंतर के कोमल स्वर हों कितने भी पवित्र
मैंने ही ईर्ष्या को रँग-रँगकर दिये चित्र
“विस्तार नील नभ का नयनों में भर लेती
यदि मैं गृह की सीमा-सा अंतर कर लेती
उड़ने देती न चपल खग को दिग-काल भूल-
उज्ज्वल अनंत में, क्योंा चुभते ये हृदय-शूल
शंका से भर पति-पत्नी का पावन नाता
क्यों तुनुक तार जीवन का, हाय, बिखर जाता! ‘
“नारीत्व! मिली तुझको दुर्बलता की संज्ञा
अज्ञान मानती ही आयी चिर-दिन प्रज्ञा
भावना किसीने कहा, भ्रांति, विभु का माया
पर सच तो यह है, तुझे न कोई पढ़ पाया
आत्मा-विहीन केवल छवि की कंचन-रेखा
सब ने निज-निज सपनों से रँग तुझको देखा’
देखे प्रभात ने सम्मुख दो जुड़ते कपाट
फिर जाये उलटी ज्यों श्रावन-सरिता सपाट
वह द्वार, जहाँ जीवन को पुनः प्रकाश मिला
वह द्वार, जहाँ था सुना पुनः मधु-स्वर पहिला,
मुद्रित पलकों-सा भरे हृदय में चीत्कार
जीवन को व्यंग्याहत करता था बार-बार