aayu banee prastavana
किसीकी ओर मत देखो, किसीकी ओर मत देखो
कि मेरा जी दहलता है
किसीके प्राण का आलोक तुमको भा गया तो क्या!
किसीके रूप का उन्माद तुम पर छा गया तो क्या!
कहीं जी आ गया सहसा किसीके मुख सलोने पर
किसीकी बात का जादू तुम्हें भरमा गया तो गया!
पलटकर तुम किसीकी, प्रिय! तृषित दृगकोर, मत देखो
अकिंचन की कुटी में तुम कनक की मेघमाला हो
अँधेरे भग्न जीवन में कलाधर का उजाला हो
मुझे डर है, कहीं यह सिद्धि हाथों से न उड़ जाये!
तुम्हें खोकर न मेरे प्राण का तम और काला हो!
हृदय की अंध गलियों में छिपा जो चोर, मत देखो
निमंत्रण आ रहे हैं चाँदनी को ज्वार के, सच है
नहीं मैं योग्य ऐसे प्राणवेधक प्यार के, सच है
हृदय के स्पंदनों को किंतु कैसे आज समझाऊँ!
मुझे तो एक ही तुम हो निखिल संसार के, सच है!
किरण में उड़ रही जो वह सुनहली डोर, मत देखो
किसीकी ओर मत देखो, किसीकी ओर मत देखो
कि मेरा जी दहलता है
1965