nao sindhu mein chhodi
कैसी अद्भुत तेरी माया!
मेरे भीतर-बाहर जिसने इतना खेल रचाया!
महाशून्य से क्यों थी फूटी
यह जड़-चेतन सृष्टि अनूठी?
यह सच्ची है अथवा झूठी
कुछ न समझ में आया
इस रचना का अंत कहाँ है?
तम जिससे द्युतिवंत, कहाँ है?
वह अव्यक्त, अनंत कहाँ है
यह जिसकी है छाया
बुद्धि जहाँ भटकी मृगजल में
श्रद्धा पहुँच गयी है पल में
मैंने तो तेरे पगतल में
अपना उत्तर पाया
कैसी अद्भुत तेरी माया!
मेरे भीतर-बाहर जिसने इतना खेल रचाया!