kitne jivan kitni baar
अपरिमित दया, दयामय! तेरी
फिर भी क्यों रूठे रहने की प्रकृति बनी है मेरी!
मुझको एक फूल भी भाया तू
सारा उपवन ले आया
पतझड़ में वसंत की माया रचते लगी न देरी
मान लिया मेरी हर जिद को
पल में किया कहा मैंने जो
फिर भी क्यों मन की तृष्णा यों करती हेराफेरी
अपरिमित दया, दयामय! तेरी
फिर भी क्यों रूठे रहने की प्रकृति बनी है मेरी!