kitne jivan kitni baar
अब कहाँ बसेरा अपना
धीरे धीरे लघु होता जाता है घेरा अपना
मन अब और कहाँ तक भागे
सीमाहीन शून्य है आगे
क्या संग्रह कर ले क्या त्यागे
उठता डेरा अपना
कैसे पाश छिन्न कर पाए
यह निज से विमुक्त हो जाये
कैसे निकट तुम्हारे आये
लिए अन्धेरा अपना
फूल धूल में गंध पवन में
नष्ट हो रहा सब क्षण क्षण में
सोच रहा हूँ मैं इस तन में
क्या है मेरा अपना
अब कहाँ बसेरा अपना
धीरे धीरे लघु होता जाता है घेरा अपना