bhakti ganga
आया चरण शरण में बेसुध, थककर चारों ओर से
दिन-दिन दुर्बल मन यह बाँधो, प्रभु! करुणा की डोर से
सतत चाक पर चढ़ने से क्या!
नित कंचन से मढ़ने से क्या!
रँग-रूप के बढ़ने से क्या!
मृण्मय भाजन गल जायेगा जल की चपल हिलोर से
बाहर से जैसा भी कर दो
किन्तु प्रेम से अंतर भर दो
अपनी वह अनुभूति अमर दो
जिससे जरा-मरण-भय छूटे भीत दृगों की कोर से
दृष्टि भले हो धूमिल जाये
मिटटी मिटटी में मिल जाये
नभ पर ज्योति-कुसुम खिल जाये
मेरा भग्न तार जोड़ो, प्रभु! निज अनंत के छोर से
आया चरण शरण में बेसुध, थककर चारों ओर से
दिन-दिन दुर्बल मन यह बाँधो, प्रभु! करुणा की डोर से