sab kuchh krishnarpanam
चिंता क्या! मन रे!
फिर भी चिंता क्या! मन रे!
पाँव कभी लक्ष्य से न मिल पाये
ऋतु में भी फूल नहीं खिल पाये
जड़ वे पाषाण नहीं हिल पाये
फिर भी क्या विफल रहा जीवन रे!
माना सब ने था मुँह फेर लिया
भाग्य ने सदा ही पथ रुद्ध किया
उसने तो हाथ नहीं छोड़ दिया
सुधि तेरी लेता रहा क्षण क्षण रे
चिंता क्या! मन रे!
फिर भी चिंता क्या! मन रे!