diya jag ko tujhse jo paya
कभी इसपर थी कृपा तुम्हारी
कैसे भूले, प्रभु! यह धरती कभी तुम्हें थी प्यारी!
सतयुग, त्रेता हो या द्वापर
दुःख की आर्त पुकारें सुनकर
भूले! तुम आये इस भूपर
विविध वेश-वपुधारी
क्या अब मनुज-सृष्टि से रूठे?
दुख न, बुलबुला यदि यह फूटे?
जहाँ मिटे शत लोक अनूठे
क्या अब इसकी बारी ?
रच ध्रुव नियम, सुमति दी हमको
पर यदि कर लो मुक्त स्वयम् को
कैसे प्रभु! अनंत इस तम को
लाँघे लघु चिनगारी
कभी इसपर थी कृपा तुम्हारी
कैसे भूले, प्रभु! यह धरती कभी तुम्हें थी प्यारी!