diya jag ko tujhse jo paya
बनूँ देहली का पत्थर मैं
चाह नहीं, मणि-केतन बनकर लहराऊँ प्रभु! मंदिर पर मैं
भक्त पूजने को जब आयें
पत्र, पुष्प, टूटी मालायें
डलिया से जब गिर-गिर जायें
धर लूँ मस्तक पर सादर मैं
हैं न ज्ञान, वैराग्य, बुद्धि-बल
श्रद्धा और भक्ति ही अविचल
फिर भी पा लूँगा चारों फल
भक्तों की पदरज पाकर मैं
जिससे नर-तन पा, सुख पाये
प्रभु! वह कृपा न मुझे भुलाये
जीवन और पूर्ण बन आये
फिर-फिर पाऊँ छवि शुचितर मैं
बनूँ देहली का पत्थर मैं
चाह नहीं, मणि-केतन बनकर लहराऊँ प्रभु! मंदिर पर मैं