mere geet tumhara swar ho
नाथ! जब अक्षय कोष तुम्हारा
क्यों फिर रुद्ध हुई मेरे हित स्नेह-वृष्टि की धारा!
तुमको पाने की धुन में, मैंने जग से मुँह मोड़ा
जाऊँ कहाँ, तुम्हींने जब है बीच मार्ग में छोड़ा!
मिलता रहा तुम्हींसे तो पग-पग पर मुझे सहारा
ताप अशेष भानु का, अक्षय सुधाकोष हिमकर का
रुकता नहीं निमिष भी लहरों का नर्तन सागर का
क्या मुझको ही देते-देते हाथ तुम्हारा हारा !
बुरा-भला, खोटा कि खरा कुल माल तुम्हींसे पाया
नाम तुम्हारा ही देकर मैं इसे बेचता आया
क्षमा करो, प्रभु! यदि मैंने इसमें निज लाभ बिचारा
नाथ! जब अक्षय कोष तुम्हारा
क्यों फिर रुद्ध हुई मेरे हित स्नेह-वृष्टि की धारा!