mere geet tumhara swar ho
मिथ्याचारी मन, प्रभु! मेरा
फिरता रहा आस में जग की, दास कहाकर तेरा
संतों ने तेरे गुण गाये
सिर की बलि दे पद पुजवाये
मैंने तो बस शब्द सजाये
मन का मनका फेरा
किया काव्य तो तुझे समर्पित
पर चाहा उससे अपना हित
कब पल भर भी लाँघ सका चित्
आत्म-मोह का घेरा
कर अहेतुकी कृपा दास पर
दी तो कवि-प्रतिभा जगदीश्वर!
दिया न क्यों मन को असंग कर
निज चरणों में डेरा!
मिथ्याचारी मन, प्रभु! मेरा
फिरता रहा आस में जग की, दास कहाकर तेरा