vyakti ban kar aa
धधककर बुझ चुकी है दिन की चिता,
तू मुझे कहाँ छोड़कर चला गया है,
ओ निष्ठुर पिता!
‘जाने कैसा वीरान है यह डेरा!
साँय-साँय करती हवायें, और
मुँह फाड़े अजगर-सा अँधेरा!
लुप्त हुआ चाहती है मेरी अस्मिता।
तारों के दीप झिलमिला दे,
आकाश के परदे को जरा हिला दे,
बिजली चमके चाहे बादल गड़गड़ाये,
कहीं से भी तेरा कोई संकेत तो आये।
एक बार व्योम से उतर तो सही,
मुझे अपनी बाँहों में भर तो सही।
क्या ऐसे ही रो-रोकर दूँ मैं सारी रात बिता!
ओ निष्ठुर पिता!