व्यक्ति बनकर आ_Vyakti Ban Kar Aa
- अब मेरी वीणा बाह्य उपकरणों से स्वच्छंद है;
- अभिव्यक्ति ने तो आकाश को छुआ है
- आकाश के पृष्ठ पर लिखा
- आकाश का यह कौन-सा किनारा है
- आप चाहे तो इन्हें गद्य ही कहें
- आंसुओं को रोक मत, बहने दे
- इसके पहले कि सूरज अस्त हो जाए
- ओ कुम्भकार
- ओ मेरे मन!
- ओ मेरे मन! दीन हो जा
- ओ वादक!
- कभी हम भी आकाश में उड़कर
- क्या तुझे नींद आ रही है
- क्या तू मुझे इसलिए गोद में लेना नहीं चाहता
- कितनी तेज़ी से सब कुछ बदल जाता है
- कितना असहाय हूँ मैं
- कैसी है यह विडंबना
- कोई भी आरम्भ नया नहीं है
- जब अगली पंगत बैठेगी
- जब कहीं कुछ भी नहीं था
- जब मैं तेरे पास पहुँचूँगा तो तू
- जब रोम-रोम बाहु-पीड़ा की
- तू इतना दुखी और उदास क्यों है
- तू एक शक्ति है यह तो निर्विवाद है
- तू मुझे अपने से दूर दूर क्यों रखता है
- तू यह भली-भांति जान ले
- तूने आज मुझे बड़ी उलझन में डाल दिया है
- तूने मुझे फूल दिए
- तूने रस्सी का एक सिरा मेरी
- तेरी दयालुता का बखान कैसे करे
- द्वार में द्वार में द्वार
- दुख ही सत्य है
- देखते-देखते
- धधक कर बुझ चुकी है
- धरती की सीमायें अब मुझे
- धरती में गड़ा बीज चिल्लाया—
- पहले वीणा के तारों को सुधारा
- पुनर्जन्म में शंका व्यर्थ है
- फूल को इसका दुख नहीं
- माना, तू निर्गुण, निर्लिप्त, निष्क्रिय है
- मुझे इसका दुख क्यों हो
- मुझे मिटा नहीं सकोगे
- मुझे क्षमा कर देना यदि
- मुझमें अनंत सम्भावनाएँ भरी हैं
- मुझसे मेरे कवि ने कहा–
- मुझसे वह पाप बचपने में हो
- मेरा मस्तक लज्जा से झुक जाता है
- मेरे बच्चे!
- मेरे पिता!
- मेरे सिरजनहार!
- मैं अपना किसको कहूँ
- मैं इन धूल भरी गलियों में
- मैं उन सीढ़ियों पर आकर बैठ गया हूँ
- मैं कविता से गद्य पर उतर आया हूँ
- मैं तुझे किस नाम से पुकारूँ
- मैं तेरी ओर बढ़ता हूँ
- मैं तुझसे वरदान और क्या माँगूँ !
- मैं तुमसे क्षमा तो मांगता हूँ
- मैं देहरी का पत्थर ही भला
- मैं यह मानता हूँ कि
- मैं सदा जिसके लिए भटकता रहा
- मैंने सुना है, तेरी संभावनाओं का
- वह जो गाना था मुझे अगेय ही रहा
- शब्दों के रँग-बिरंगे पिटारों में
- श्वेत-श्याम अश्वों से जुते आकाश
- सीपियाँ बटोरते-बटोरते साँझ हो गयी
- सूरज और चाँद के पहियों पर
- सूरज को डूबता देख कर
- संग्रह अच्छा है
- हम सब असत्य है
- “अव्यक्त का व्यक्तीकरण और कवि का उसके साथ भाव-विनिमय, यही ’व्यक्ति बनकर आ’ का मूल स्वर है। भाव और शिल्प का विरल संतुलन ही इस काव्य की उपलब्धि है।”
-आचार्य विश्वनाथ सिंह