vyakti ban kar aa

तेरी दयालुता का बखान कैसे करे
मेरी यह टूटी-फूटी कविता!
ओ दयालु पिता!
जब भी जी में आया,
जिद्दी बालक की तरह मैंने तुझे कितना दौड़ाया!
कभी तितली का रूप, कभी कोयल का गीत मुझे भाया था,
और क्रोध करना तो दूर,
तू बाग का बाग़ ही मेरे लिए उठा लाया था।
जाने कितनी रातें तूने मेरे सिरहाने जागते हुए बिता दी थीं!
मैं सदा उलटी चालें चलता रहा,
फिर भी सभी बाजियाँ तूने मुझे जिता दी थीं।
यों तो आकाश के नीले पट पर
तू मेरे लिए अब भी श्वेत खड़िया से कुछ लिखता है,
फिर भी बचपन में जितना समीप दिखता था
वैसा अब क्‍यों नहीं दिखता है?
ओ पिता! मुझे तेरी बहुत याद आती है,
जब भी सोचता हूँ अपना बचपना और तेरी उदारता,
बरछी-सी दिल में उतर जाती है।