vyakti ban kar aa

मेरे सिरजनहार!
जब तू मुझे बना सकता था
तो क्‍या अपने आप को नहीं बना सकता था?
पंच तत्त्वों का निर्माण करके भी
स्वयं पंच तत्त्वों में नहीं समा सकता था?

जब मैं तुझे पिता कहकर पुकारता हूँ
तो ये सभी लोग मेरी हँसी उड़ाते हैं,
केवल अचेत पड़ी जननी को ही
ये अपनी उत्पत्ति का कारण बतलाते हैं।

जब मैं कहता हूँ
कि माता-पिता के योग से ही पुत्र जन्म लेता है,
तो ये हँसकर कहते हैं–
“यदि पिता है तो फिर दिखाई क्यों नहीं देता है?’

मैं इन्हें कैसे समझाऊँ
कि ये स्वयं भी तो सदा अदृश्य बने रहते हैं!
इंद्रियों के द्वारा सब व्यापार करते हुए भी
इंद्रियों के लिए चिर-रहस्य बने रहते हैं!

‘चेतन जड़ का ही क्षणस्थायी रूप भर है’
इनमें से कुछ मुझे सुझाते हैं,
किंतु जब मैं कहता हूँ, ‘ जड़ में यह ब्रह्मांडीय गणित कहाँ से आया ?!
तो वे सिर झटककर चुप रह जाते हैं।

तभी इनमें से एक सयाने की तरह बोल उठता है,
“पिता तो अवश्य था पर वह कब का मर गया है
शाश्वत और अकाट्य नियमों की यह धरोहर ही
वह हमारे लिए धर गया है।

उन्हीं नियमों से सृष्टि का सारा खेल चलता है,
हमें भी उन पर ही चलना होगा,
यदि नियमों के जाल से निकलना भी हो,
तो किसी नियम के सहारे ही निकलना होगा।’

जब मैं पूछता हूँ—
‘कालजयी नियमों का विधाता स्वयं कैसे मर गया ?
सत्‌ का अभाव कैसे हो गया?
अस्तित्व अनस्तित्व में कैसे उतर गया ?

‘यदि चेतना का महासूर्य बुझ गया था
तो नित्य ये स्फुलिंग कहाँ से आते हैं?
हर स्फुलिंग में महासूर्य की संभावनायें हैं,
प्रकृति के नियम ही हमें बताते हैं।’

तो मेरी बात सुनकर
मुझे नासमझ और अंधविश्वासी कहा जाता है,
तू ही बता, जड़ता का यह अहंकार
मौन रहकर तुझसे कैसे सहा जाता हैं।

क्यों तू प्रहाद को बचानेवाले नरसिंह जैसा
मेरे लिए भी खंभ फाड़कर नहीं निकलता है ?
क्या हुआ जो तेरे नियमों का यह महाचक्र
सब स्थितियों में सदा एक-सा ही चलता है।