vyakti ban kar aa

तूने आज मुझे बड़ी उलझन में डाल दिया है,
आह ! यह कैसा प्रश्न किया है
कि मैंने पीड़ा और दुख की अनुभूति ही क्‍यों बनायी ?
जीवन में वियोग की स्थिति ही क्यों आयी ?
जैसे इन असंख्य तारामंडलों में सदैव कुछ-न-कुछ घटता रहता है,
सदा कोई आँधी उठती रहती है,
सदा कोई ज्वालामुखी फटता रहता है,
फिर भी वहाँ कोई दुख से नहीं कराहता है,
न तो कोई विरह की आशंका से भयभीत है,
न कोई किसी से मिलना ही चाहता है;
वैसी ही असंगता इस धरती पर भी क्‍यों नहीं है?
क्यों यहाँ इतनी विकलता और इतना हाहाकार सब कहीं है ?
तेरी बात का कैसे उत्तर दूँ, समझ में नहीं आता है!
जी करता है, तुझे गोद में उठाकर उन्हीं लोकों में ले चलूँ
जहाँ अस्तित्व अचेतन रह जाता है।
क्या वहाँ भी कभी आँगन में दौड़ते हुए शिशु की किलकारियों से
माँ का हृदय पुलक उठता है?
पति का परदेश से आगमन सुनकर
अंतःपुर में पत्नी का हृदय थिरक उठता है?
क्या वहाँ भी दो मित्रों का प्रेम संकट की घटाओं को चीरकर
एक दूसरे के लिए सूरज-सा चमक उठता है?
माना, वहाँ पीड़ा और कष्ट की अनुभूतियाँ नहीं हैं,
किंतु उस उदासीनता और एकाकीपन से ऊबकर ही तो
मैंने यह धरती बनायी है,
इसके कण-कण में मेरे ही तो स्वरूप की परछाई है,
इसकी हर धड़कन में मेरी ही तो धड़कन समायी है।
उन शून्यलोकों में तू मुझे कहाँ मिलता, बोल तो सही,
जहाँ न पिता थे न पुत्र, भाई थे न बहन, पति थे न पत्नी!
जीवन का यह उल्लास, आशाओं की यह थिरकन,
‘कल्पनाओं की यह रंगीनी वहाँ कहाँ थी !
समवेदना और सहानुभूति से हीन,
केवल जड़ तत्त्वों की उछल-कूद ही तो जहाँ-तहाँ थी!
वहाँ मैं सब कुछ देखता था, परंतु मुझे देखनेवाला कौन था!
प्यार की एक पुकार सुनने को मेरे प्राण तड़पते थे,
मेरे चारों ओर निर्लिप्तता थी, वीरानापन था, मौन था;
तेरे साथ हँसने-बोलने के लिए ही
मैंने चेतना का यह नाटक खेला है;
अब न मैं ही अकेला हूँ, न तू ही अकेला है।