vyakti ban kar aa
जब रोम-रोम बाहु-पीड़ा की
तीब्र-यंत्रणा से जलता था
तब भी तुलसी का हृदय
कोमल-कांत पदावलियों में ही ढलता था,
मुँह से राम का नाम ही निकलता था।
किशोरावस्था में जिसकी मुरली ने
त्रिभवन का मन मोह लिया था
प्रौढ़ावस्था में उसीने कुरुक्षेत्र की रणभूमि से
गीता का संदेश दिया था
अपने लक्ष्य को विस्मृत नहीं किया था
कवींद्र रवींद्र सारी आयु
कविता के मेघ बरसाते रहे
जीवन-तरणी के भसान के क्षण भी
उनके ओंठों पर गीत मँडराते रहे
अंतिम साँस तक वे रसभरे गीत गाते रहे
तब मैं ही भला अहेरी को आता देखकर
चुप कैसे हो जाऊँगा!
ज्यों-ज्यों तीर चुभता जायगा
और जोर-जोर से गाऊँगा!
मन की पीड़ा को शब्दों में सजाऊँगा।
मुझे अभी से विश्राम नहीं चाहिये,
तेरे पास तो विश्राम ही विश्राम रहेगा,
आज मैं कहता हूँ और तू सुनता है,
कल मैं सुनूँगा और तू कहेगा,
ये यंत्रणायें कल तू ही सहेगा!