vyakti ban kar aa

मैं देहरी का पत्थर ही भला
जो तुम्हारे भक्तों की चरण-रज तो पाता हूँ.
जब भी वे तुम्हारी कृपा-दृष्टि पाने को आते हैं
और चू पड़ता है उनकी डलिया से कोई पत्र या पुष्प
तो सहर्ष उसे मस्तक पर चढ़ाता हूँ।
मंदिर का कलश बनकर तो
मैं इन सबसे वंचित ही रह जाता।
न होती मेरे निकट इतनी चहल-पहल,
न घेरे रहते मुझको दर्शनार्थियों के दल-के-दल,
न कोई मुझ पर मस्तक झुकाता,
न अक्षत-चंदन चढ़ाता;
व्यर्थ की महत्ता से ठगा हुआ,
रहता बस शून्य में टँगा हुआ।