seepi rachit ret

अपराध

अंतरतम में जिसे कृपण के धन-सा रक्खा गुप्त सदा,
औरों की तो क्‍या अपने सम्मुख न कभी स्वीकार किया
जिसका अणु अस्तित्व, मचलता था यद्यपि मन यदा-कदा,
किंतु झिड़कियाँ दे, समझा, जिसको आगे बढ़ने न दिया।

प्रिय! में अपने नयनों द्वारा, देख तुम्हें देखते उधर
अनायास जो लगे, न लगकर एक बार, फिर हट पाये,
उसे प्रकट कर लज्जित तुम से चार आँख हो जाने पर–
“कैसे भाव तुम्हारे मन में मेरे प्रति होंगे आये।’

रूप देखते हुए नयन मेरे उस भोले मधुकर-से
हट न सके, जो निशि-आगमन जानकर भी पीता मकरंद
उड़ न सका नीले पत्रों से रचित पद्म-शैया पर से,
गुनगुन गाता हुआ मंद, मंदतर हो गया क्रमशः बंद।

छिपकर कितनी बार तुम्हें देखा, न मिटी दर्शन की साध,
अधिक दिनों तक छिपता कैसे इस अपराधी का अपराध!

1941