seepi rachit ret
खिलखिल कर हँसती हो जब तुम
खिलखिल कर हँसती हों जब तुम, कहीं झनझना उठी सितार
पार्श्व-कक्ष में, मुझको होता भान, किसीके कर द्वारा,
या कलकल करती बहती है दूर कहीं घाटी के पार
लघु-लघु उपलों से टकराती, बल खाती, निर्झर-धारा।
जलतरंग-सी सुनता मैं वह तरल खिलखिलाहट, ज्यों, प्राण!
उष:काल में सजल पाटलों के दल पर दल खिलते हों
मधुकर-निकर-गुंजरित, पाकर श्रावण-धन से चुंबन-दान,
मधुमय स्वर करते तरु के शत-शत किसलय ज्यों हिलते हों।
सोचा करता मैं, इस तरल खिलखिलाहट का अंत न हो,
ऐसी कोई बात कहूँ जिससे क्षण-क्षण बढ़ती जाये
ऋण-सी, मिलते शब्द न पर, तुम हँसती ‘प्रियतम ! दूर रहो
हम-दोनों को डुबा चाहती यह मधु-सरिता लहराये।’
तुम हँसकर उड़ेल देती अपने मन को मेरे मन में,
मैं खोया-सा सुनता रहता, प्रतिध्वनियाँ ज्यों निर्जन में।
1941