chandni

चंद्रकांत यह नहीं, चाँदनी! तू किस पर फूली!

किरणें चटुल, समीर छली, पिक अंध है
जड़ के लिए नहीं चेतन का बंध हैं
यह जंगल का फूल, अरी! निर्गध है

तू जिसकी भुज-बल्लरियों के झूले पर झूली

मधु सपनों में मुग्ध झूमती गा रही
बार-बार झुक अधर चूमती जा रही
दूग में नूतन सृष्टि घूमती आ रही

भूली-सी फिरती यौवन की तूली से छू ली

और देश यह भूमि और जन और ही
और कुसुम ये हैं ये कानन और ही
द्रवित हुए होंगे तुझ से मन और ही

सोना उसको समझ रही जो है पथ की धूली
चंद्रकांत यह नहीं, चाँदनी! तू किस पर फूली।

1942