bhakti ganga
मैं तो बस चुप मार रहूँगा
क्षमा माँगने का भी साहस कैसे जुटा सकूँगा!
रत्नाकर के तट भी जाकर
सदा बटोरे कंकर-पत्थर
पूछोगे जब,’क्या लाये घर?’
तब उत्तर क्या दूँगा!
शब्दों से तो स्वर्ग लजाये
कर्म देखकर रोना आये
जो भी दंड तुम्हें, प्रभु! भाये
शीश झुकाकर लूँगा
पर क्या पता, प्रेम की यह लय
मोह तुम्हें भी ले, करुणामय!
तनिक सोचकर कहो कि निर्णय
अगली बार करूँगा
मैं तो बस चुप मार रहूँगा
क्षमा माँगने का भी साहस कैसे जुटा सकूँगा!