ghazal ganga aur uski lahren
1575
लगा कि अब तेरी बाँहों में कोई और भी है
हमीं हों दिल में, निगाहों में कोई और भी है
1576
लगा न होंठों से प्याला तो एक बार कभी
नज़र से हमने मगर पी ही ली उधार कभी
1577
लगी है चोट जो दिल पर बता नहीं सकते
ये वो कसक है जो कहकर सुना नहीं सकते
1578
लटों को उलझी हुई ज़िंदगी की सुलझाते
किसीका हाथ जो थक जाय, क्या करे कोई !
1579
लय ताल टूट जाते है आते ही उनका नाम
जीवन का गीत हमसे तो गाया न जायगा
1580
लहर हैं वह जिसे कोई भी किनारा न मिला
वो धुन हैं हम जिसे कोयल ने गाके छोड़ दिया
1581
लहरा रहे हैं आपकी आँखों में अब गुलाब
काँटों से ज़िंदगी को बचाया न जायगा
1582
लाकर हमारे होंठ तक प्याला पटक दिया
की दोस्ती भी उसने मगर दुश्मनी के साथ
1583
लाख कुम्हला गया दुनिया की हवा से तू, गुलाब !
एक मोती तेरे गालों पे दमकता ही रहा
1584
लाख खिलते हों गुलाब आपकी आँखों में, मगर
अब निगाहों में वो ख़ुशबू नहीं मिल पाती है
1585
लाख चक्कर हों सुराही के, हमारा क्या है !
हम तो प्यासे रहे पानी के, हमारा क्या है
1586
लाख तू उनकी निगाहों में समाया है, ‘गुलाब’ !
पर न हमने तेरी तक़दीर बदलती देखी
1587
लाख तूफ़ान उठ रहे थे, मगर
दिल को पत्थर बनाके बैठ गये
1588
लाख थी बोलने की मनाही ‘गुलाब’
भेंट फिर भी ये सौग़ात होती रही
1589
लाख दस्तक दें हवायें आके इस डाली पे आज
फूल जागेंगे नहीं आँखें मगर मलते हुए
1590
लाख पत्तों में छिप रहे थे गुलाब
गंध भौंरों को पर बुला ही गयी
1591
लाख बातें बनायी हैं हमने
बात पर एक बन न पायी क्यों !
1592
लाख सीने में छिपाया किये हम दिल को, मगर
फिर ये शीशा किसी पत्थर की चोट खा ही गया
1593
लाख हमसे कोई आँखें चुरा रहा है, मगर
प्यार का रंग निगाहों में उभर आता है
1595
लाने का यहाँ और ही मक़सद है तुम्हारा
जो हमको दिखाते हो, तमाशा तो नहीं है
1595
लायेगी रंग एक दिन चुप्पी ‘गुलाब’ की
कुछ कह गये हैं वे भी बड़ी सादगी के साथ
1596
लिया था नाम ही चलने का, भर आयी आँखें
अब उनसे लौटकर आने की बात कौन करे !
1597
लिये जीने की मजबूरी खड़े हैं तीर पर हम-तुम
गले मिलकर चली लहरों में ये परछाइयाँ किसकी !
1598
लीजिए ज़ब्त किया हमने, मगर मुँह का रंग
क्या करें, सुनके जो आवाज़, बदल जाता है !
1599
लीजिए बढ़के अपनी बाँहों में
हम भी बैठे हैं दिल की राहों में
1600
लीजिए, मूँद ली आँखें हमने
आप क्यों मुँह फिराके बैठ गये !
1601
लीजिए, हम वो मुक़दमा ही उठा लेते हैं
अपनी क़िस्मत ही सही, आपकी आदत न सही
1602
लुभा रही है बहुत उनके देखने की अदा
पर उसको क्यों कहें बादल कि जो बरस न सका !
1603
ले उड़ीं दूर तक हवायें गुलाब
गंध पत्तों ने लाख दाबी भी
1604
लेते न मुँह जो फेर हमारी तरफ़ से आप
कुछ ख़ूबियाँ भी देखते ख़ानाख़राब में
1605
लो क़सम, मुँह से अगर हमने लगायी हो शराब
यह बहाना था गले तुमको लगाने के लिये
1606
लोग क्या-क्या नहीं कहते हैं हमें दुनिया में
आपका नाम भी आया है, आप चुप क्यों हैं !
1607
लोगों ने बात-बात में हमको दिया उछाल
शायर तो अपने आपको कहते नहीं हैं हम
1608
लौ कहीं और भी कम न हो
और कम, और कुछ भी नहीं
1609
वंदना इस तरह भी होती है
सर जहाँ है मेरा, चरण कर लो
1610
वक़्त मिलता नहीं मिलने का उन्हें, सच है, मगर
बस यही एक हो मजबूरी, ज़रूरी तो नहीं
1611
वन में पतझड़ भी होता रहा
और कोयल भी गाती रही
1612
वनों में आग है, बिजली भी आसमान में है
तड़प कहीं भी नहीं वह जो मेरे प्राण में है
1613
वह उठी आँधी कि मंज़िल का पता भी खो गया
दिल के जो अरमान थे दिल में तड़पकर रह गये
1614
वह किसी फूल में नहीं देखी
जैसी ख़ुशबू थी उन निगाहों में
1615
वह ग़ज़ल के नुक़्ते-नुक़्ते से है दुनिया पर खुली
लाख हम इस दिल की बेताबी कहें मत आपसे
1616
वह जानते हमीं हैं जो खायी है हमने चोट
एक बेरहम को अपना बनाने की चाह में
1617
वह तो हम हैं कि कहते नहीं
कौन पीता है जूठी शराब !
1618
वह नज़र थी और जो दिल को उड़ाकर ले गयी
जब फिरी, हम अपनी क़िस्मत के बराबर रह गये
1619
वहाँ पहाड़ की घाटी से, आधी रात के बाद
ये किसने फिर मुझे टेरा ! कहीं भी कोई नहीं
1620
वहीं जो पाँव ठिठक जाय, क्या करे कोई !
नज़र जो ख़ुद ही बहक जाय, क्या करे कोई !
1621
वही पँखुरियाँ, वही बाँकपन, वही रंग-रूप की शोख़ियाँ
वो गुलाब और ही था मगर, जिसे तुम खिलाके चले गये
1622
वही लौ इधर भी, वही लौ उधर भी
दिये को दिये से जलाओ तो क्या है !
1623
वही हैं आप, वही हम, वही हैं प्याले भी
नया कुछ और उन आँखों से ढालकर लाये
1624
वही हैं सभी प्यार की रंगरलियाँ
ये दुनिया भरी की भरी छूटती है
1625
वही हो तुम, वही मैं हूँ, वही है दुनिया भी
खो गयी जाने कहाँ, कैसे, वह कुँवारी नज़र
1626
वादा आने का कर गया था कोई
उम्र भर इंतज़ार करते हैं
1627
वादों को उनके ख़ूब समझते हैं हम, मगर
क्या कीजिए जो दिल को तड़पने की प्यास हो !
1628
वार हँस-हँसके दुनिया के झेला किये, हमने दुश्मन न समझा किसीको कभी
जिनको अपना समझते थे दिल में मगर, बेरुख़ी आज उनकी गवारा नहीं
1629
विश्व उद्यान है, भ्रमण कर लो
फूल मिल जाय तो नमन कर लो
1630
वीणा को यों तो हाथ में थामे हुए हैं हम
फिर भी सुनाके मौन सभा में हुए हैं हम
1631
वे अदायें कहाँ अब, ‘गुलाब’ !
जिनपे मरने की खायी क़सम !
1632
वे और हैं जो बजाते हैं ज़िंदगी का सितार
छुआ था हमने तो जैसे ही, तार टूट गया
1633
वे और होते हैं जिनसे कि बंदगी बन जाय
मिले जो देवता हमको तो आदमी बन जाय
1634
वे कलेजे से लगा लें बढ़कर
मेरे मरने में जान हो भी तो !
1635
वे कह गये गुलाब से आँचल छुड़ाके आज–
‘हम बँध गये हों उम्र भर, ऐसा तो नहीं था’
1636
वे ख़यालों में ही मिलें तो कभी
है अँधेरा इन ऐशगाहों में
1637
वे घबराके यों मेरी बाँहों में आये
पहाड़ों से जैसे नदी छूटती है
1638
वे, जो कुँवारी शाम को उस दिन आपको बेहद भाये थे
वैसे गुलाब न फिर खिल पाये, सबने खिलाकर देख लिया
1639
वे, जो तुमको कभी हँसते हुए मिलते थे, ‘गुलाब’ !
आज रो-रोके, सुना, जान दिया चाहते हैं
1640
वे तड़पने का खेल देखा करें
ज़िंदगी हमको दी इसीके लिये
1641
वे तो बस मुस्कुरा भर दिये
ख़ून अपना पसीना हुआ
1642
वे दिन कुछ और ही थे जब गुलाब आँखों में रहते थे
बिना ठहरे ही डोली अब बहारों की निकल जाती
1643
वे देखें, न देखें, सुनें, मत सुनें
हमारा यही ज़ोर था, कह गये
1644
वे न देखें तुझे, यह बात है कुछ और, गुलाब !
वर्ना यह रंग हज़ारों से अलग होता है
1645
वे न भूलेंगे वादा, मगर
उम्र भर कौन मरके रहे !
1646
वे निराशा में ही मिलते है, सुना
थोड़ा होकर निराश देखेंगे
1647
वे बातें जिन्हें हम छिपाया किये
बता ही गये बातों-बातों में आप
1648
वे बुरे को ही कह रहे हैं भला
वही अच्छा है जो ख़राब भी है
1649
वे भले ही हँसके भी मिल रहे, न भरे वे प्यार के दिल रहे
जो कभी थे होंठ पे खिल रहे, वे गुलाब आज किधर गये !
1650
वे भले ही हमारे न हों
ज़िंदगी उनकी होके रही
1651
वे भाँप ही लेते हैं निगाहों का हर सवाल
ऐसे तो और बातों में नादान बहुत हैं
16532
वे भी आये हमारे मातम को
आये और मुस्कुराके बैठ गये
1653
‘वे भी तो होंगे किसीके प्यार में’
बेकली को दिल की समझाया किये
1654
वे भी दिन थे कि निगाहों में खिल रहे थे गुलाब
आज कहते हैं हमें और तो हम और सही
1655
वे भी दिन थे कि हमीं आये हरेक बात में याद
आज हर बात में कहते हैं कि हम भूल गये
1656
वे भी बेचैन हों हमारे लिये
और हम इसको देख भी पायें
1657
वे मिल तो लेते हैं आँखों-आँखों, नहीं भी दिल में जो कुछ कहीं है
शराब प्याले में हो न हो, पर, नशा तो पीने में कम नहीं है
1658
वे लटें थीं रात किसकी मेरे बाजुओं पे बिखरीं
मेरे हर ख़याल में एक ख़ुशबू-सी भर गयी है
1659
वे लोग जा चुके जिन्हें फूलों से प्यार था
क़दमों पे अब ये बाग़ भी सारे हुए, तो क्या !
1660
वे सुर कुछ और ही हैं जिनसे यह नग़्मा निकलता है
ये वह धुन है जो हर एक साज़ पर गायी नहीं जाती
1661
वैसे तो आज प्यार में हारे हुए हैं हम
फिर भी कभी, किसीके सँवारे हुए हैं हम
1662
वैसे तो ‘गुलाब’ उनका इस बाग़ पे क़ब्ज़ा है
हम देखते ख़ुशबू को रुकने को कहा होता
1663
वैसे तो चाहने से यहाँ क्या नहीं होता !
बस आपकी नज़र का इशारा नहीं होता
1664
वो एक बात जो दम भर में चलते वक़्त हुई
वो एक बात तो पहले भी हो गयी होती
1665
वो एक बात जो होंठों पे आके ठहरी है
वो एक बात तेरी हर अदा से न्यारी है
1666
वो, जिसको आख़िरी मंज़िल समझ लिया तूने
वो तेरे अगले क़दम के सिवा कुछ और नहीं
1667
वो नज़र से जानेवाला, मेरे दिल में आके बोला–
‘सभी कुछ वही है, हमने, ज़रा घर बदल लिया है’