anbindhe moti

प्रेम एकांगी ही पलता है
चाहे जले न जले फतिंगा, दीपक तो जलता है

जल न पवन आ आकर कहता
रो-रो भार स्नेह का सहता
जले बिना वह कैसे रहता

नियम कहीं टलता है !

अंधकार से बाँह भरे क्‍या !
अपने पर ही आप मरे क्या !
जले नहीं तो और करे क्या !

जोर न कुछ चलता है

जलता लौ में साँझ-सकारे
संगी मना-मनाकर हारे
जीवन ही अब ज्योति बना, रे

इतनी विह्ललता है

घेरे बैठी रजनी काली
रख प्रकाश के मुँह की लाली
तिल-तिल कर जल जाता, आली

मरण किसे छलता है !

सारी निशि अपलक पथ तकतीं
प्रात, शेष निःस्वासें थकतीं
प्रिय का मुख भी देख न सकतीं

कितनी असफलता है !

प्रेम एकांगी ही पलता है
चाहे जले न जले फतिंगा, दीपक तो जलता है
1940

यह कविता मैंने मैथिलीशरण जी गुप्त के “साकेत’ महाकाव्य में दी हुई उनकी कविता ‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ के उत्तर में लिखी थी और उन्हें भेज दी थी। जब वे कुछ दिनों बाद बनारस आये तो मिलने पर उन्होंने इसकी बड़ी सराहना की।