anbindhe moti
मुझ से रूठ गये मन के वासी
साज-सिँगार व्यर्थ हैं तन के
कितनी भी सज-धज, बन-ठनके
जाऊँ आज निकट साजन के
नहीं मनाने से मानेंगे, नंदन के वासी
नाम सुमरते उमर बितायी
रही दर्शनों को अकुलायी
जुगत एक भी काम न आयी
पाहन ही बन गये देवता पाहन के वासी
रूठ भले ही मुझे भुलायें
भुजबंधन के बीच न आयें
संभव नहीं, हृदय से जायें
तोड़ सकेंगे मन का बंधन, बंधन के वासी !
मुझसे रूठ गये मन के वासी
1940