ravindranath:Hindi ke darpan me
दिनशेषे
दिनशेषे होये एलो, आँधारिलो धरनी
आर बेये काज नाई तरनी ।
‘हाँगो ए कादेर देशे
विदेशी नामिनु एसे’
ताहारे शुधानू हेसे येमनी —
अमनी कथा ना बोली
भरा घटे छलछलि
नतमूखे गेलो चलि तरुनी ।
ए घाटे बाँधिबो मोर तरनी ।
नामिछे नीरव छाया घनवनशयने,
ए देश लेगेछे भालो नयने ।
स्थिर जले नाही साड़ा,
पातागुलि गतिहारा
पाखि यत घूमे सारा कानने —
शुधू ए सोनार साँझे
विजने पथेर माझे
कलस काँदिया बाजे काँकने ।
ए देश लेगेछे भालो नयने ।
दिन का शेष
दिन डूबा, ढँक रहा अँधेरा गाँव को
बाँधूँगा मैं इसी घाट पर नाव को
पूछे भी मत, “नाविक ! तुम इस देश में
आये थकित कहाँ से दिन के शेष में ?”
जल छलकाती भरा कलश सिर पर धरे
विहँस चले नतमुख तरुणी, रुख मत करे
जगा रही नूपुर-ध्वनि तो रस-भाव को
बाँधूँगा मैं इसी घाट पर नाव को
उतरी खेतों में संध्या तन्द्रालसा
दूर राजप्रासाद बहुत लगता भला
सोये तृण-तरु, नदी-सलिल भी सो रहा
फिर भी तट पर जो कंकण-स्वर हो रहा
साँकल से ज्यों बाँध रहा है पाँव को
बाँधूँगा मैं इसी घाट पर नाव को
झलिछे मेघेर आलो कनकेर त्रिशूले
देऊटि ज्वलिछे दूरे देउले ।
श्वेत पाथरेते गड़ा,
पथखानी छाया-करा
छेये गेछे झरेपड़ा वकूले ।
सारि सारि निकेतन
बेड़ा-देउया उपवन,
देखे पथिकेर मन आकूले ।
देऊटि ज्वलिछे दूरे देउले ।.
राजार प्रासाद होते अति दूर वातासे
भासिछे पूरवीगीति आकाशे ।
धरनी समूख पाने,
चले गेछे कोन खाने,
परान केनो के जाने उदासे ।
भालो नाही लागे आर
आसा-याउया बार-बार
बहूदूर दूराशार प्रवासे ।
पूरवी रागिनी बाजे आकाशे ।
कानने प्रासादचूड़े नेमे आसे रजनी,
आर बेये काज नाही तरनी ।
यदि कोथा खूँजे पाई,
माथा राखिबार ठाँई
बेचाकेना फेले याई एखनि —
येखाने पथेर बाँके,
गेलो चलि नत आँखे
भरा घट लये काँखे तरुनी ।
एई घाटे बाँधिबो मोर तरनी ।
दिखता मंदिर-शिखर, शंख-ध्वनि आ रही
वायु गेह-स्मृति ला मन विकल बना रही
यह अलकों की गन्ध, चूड़ियों की खनक
ले जायेगी मुझे खींचकर गाँव तक
पा ही लूँगा दो गज धरती ठाँव को बाँधूँगा मैं इसी घाट पर नाव को