gandhi bharati
शत दशाब्दियों से पदमर्दित, संज्ञाहत, शतखंड-विभक्त,
जन-जीवन विच्छिन्नन, विकल भारत-भू सोयी थी निश्चेष्ट,
चिर-प्रतिरोध-विहीन, कल्पनायें अपंख थीं, प्राण अशक्त,
रूप विरूप, कृती अकृती, जैसे फिर यह भी था न यथेष्ट,
महानाश का ज्वार बढ़ा पश्चिम से अंतर की मणि को
ग्रस लेने जो कहीं छिपी थी आवर्तों में आत्मा के।
चिर-विनाश का अंतिम क्षण वह, सम्मुख देख काल-फणि को
क्रुद्ध गरजते, सहसा स्पंदन हुआ बंधनों में माँ के।
जागी वह करुणार्द्र-दृष्टि, ममताकुल-नयना, स्नेहभरी,
छूट गिरी असि वधिकों के कर की निःशक्त हिंस्र-समुदाय
श्रद्धानत था, सुनी विश्व ने मधुर प्रेम की स्वर-लहरी
मोहन की वंशी-सी, नर्तित शतफण काल-फणी असहाय।
‘कोटि-कोटि नयनों ने देखा वेग सत्य की आँधी का
कोटि चरण चल पड़े एक इंगित पाते ही गांधी का।