gandhi bharati
गलने लगा हिमालय लज्जा से, सागर चिंघाड़ रहा
चाबुक से आहत मृगेंद्र-सा, पराधीनता का अभिशाप
ढोया था जिस सहनशील धरती ने, अंतर फाड़ रहा
उसका यह विश्वासघात का विष से अधिक भयंकर पाप।
आह! तुम्हींको अंतिम आहुति बनना था इस ज्वाला में
जो खा गयी सहस्रों शिशुओं, कन्याओं, माताओं को,
पुत्र-पुत्रवधुओं को, तरुणों को, तरुणी या बाला में
बिना भेद के, अबलाओं को, बहनों को भ्राताओं को
कहीं जान पाते, स्वतंत्रता! ओ आर्यों की कुलदेवी,
तू इतनी कठोर है, इतनी कष्टमयी है तेरी प्रीति
एक हाथ में अमृत, एक में विष, तेरे प्रिय पद-सेवी
दोनों को चखते हैं, तेरी रही सदा से ही यह रीति —
हम न मचलते राष्ट्रपिता से तुझे बुलाकर लाने को
घर के ही दो टूक कर दिए, मिले पुत्र ही खाने को!