gandhi bharati
पूरब से पश्चिम तक गूँजा स्वतंत्रता का मोहक राग,
कोटि-कोटि प्राणों ने दुहराया, हिमवान उठाकर सिर
चकित देखने लगा, सिंधु अँगड़ाई ले उठ बैठा जाग,
सिहर उठी धरणी, मलयानिल गया द्वीप-द्बीपों में फिर।
पलकों में मुस्कायी कलियाँ, विहग नीड़ में चहक उठे,
नव किसलय-से, छलक पड़ा वल्लरियों का आकुल अनुराग
तुहिन-कणों में, बरसों सूखे सरसों के दल महक उठे
‘पीत वसन तरुणों-से, वन-वन लगी पलास-कुंज में आग।
धरती के अंतर से फूटी स्नेहमयी शीतल धारा
चिर-अप्रतिहत वह वसंत के प्रथम दिवस का-सा श्रृंगार,
आयी थी जब बालकिरण चुंबन को वंदी की कारा,
खग-रव मिस कानों में भरती मधुर तुम्हारी जयजयकार !
बापू! लिए गर्भ में अपने स्वतंत्रता का प्रथम प्रभात,
सिसक रही थी पराधीनता की उस क्षण वह काली रात।