gandhi bharati
सेवा ही है मानवता का अर्थ बता जिसने दिन-रात
पीड़ित, पतित अछूत, अनादृत की सेवा में शेष किया
सारा जीवन एक पवित्र पाठ-सा, सहकर भी आघात
हिंसा और द्वेष के जिसने सेवा का ही मंत्र लिया।
सेवा ही अधिकार कहा था जिसने, नहीं तनिक अधिकार
दिया किसीको निज सेवा का उसने, हम भूलें कैसे
यह पीड़ा! स्वामी के मन का लघुतर होगा सेवा-भार
यदि सेवक बन जायेँ सभी भारतवासी उसके जैसे।
जन-सेवा, जीवन-सेवा, सेवा कुल-ग्राम-राष्ट्र-भू की
सेवा निखिल मनुजता की, कष्टों के पारावार-निमग्न
माँग रही जो मृत्यु बिलखती, धारा उसके आँसू की
पोंछ सके जो सेवा, रोक सके जो महानाश का लग्न।
ऐसी हो सेवा तो बापू के भारत के वासी हम,
जीवन्मृत अन्यथा कृतघ्न, कुबुद्धि, कुटिल, कुलनाशी हम।