har subah ek taza gulab
यों ख़यालों में उभरता है एक हसीन-सा नाम
जैसे मिल जाय भटकते हुए राही को मुक़ाम
हाथ भर दूर ही रहता है किनारा हरदम
हमको यह डाँड़ चलाते ही हुई उम्र तमाम
फिर एक बार कहो दिल से वहीं लौट चलें
सुबह हुई थी जहाँ अब वहीं हो प्यार की शाम
कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको
यों तो दुनिया की निगाहों में हम रहे नाकाम
इस तरह गोद में काँटों की सो रहे हैं गुलाब
जैसे आया हो तड़पने से घड़ी भर आराम