kuchh aur gulab
दिन ज़िंदगी के यों भी गुज़र जायँ तो अच्छा
हम इस ख़ुशी के दौर में मर जायँ तो अच्छा
यों तो न रुक सकी कभी कूची तेरी, रँगसाज !
फिर भी कभी ये हाथ ठहर जायँ तो अच्छा
मजमा उठा-उठा है, झुकी आ रही है शाम
मेले से अब हम लौट के घर जायँ तो अच्छा
चरणों में बिछी उनके पँखुरियाँ गुलाब की
कुछ आख़िरी घड़ी में सँवर जायँ तो अच्छा