sau gulab khile
उतरती आ रही हैं प्राण में परछाइयाँ किसकी !
हवा में गूँजती हैं प्यार की शहनाइयाँ किसकी !
ये किसकी याद ने रातों उन्हें बेसुध बनाया है !
तड़पकर रह गयीं शीशे में ये अँगड़ाइयाँ किसकी !
लिये जीने की मजबूरी खड़े हैं तीर पर हम-तुम
गले मिलकर चली लहरों में ये परछाइयाँ किसकी !
हुए देखे बहुत दिन फिर भी अक्सर याद आती हैं
वो भोली-भाली सूरत और वे अच्छाइयाँ किसकी !
कोई जैसे मुझे अब दूर से आवाज़ देता है
बुलाती हैं ‘गुलाब’, आँखों की वे अमराइयाँ किसकी !