ahalya

जो प्रेम अमर मुझको छूकर वह मलिन दीन
कैसी मृण्मयता यह हिरण्य भी मूल्य-हीन?
जो शक्ति पुरुष की, दुर्बलता मेरी वही न!
मैं तिल-तिल मिटकर हो जाऊँ तम में विलीन
हा! क्रूर लेखनी रोको!

यह मुझे देखता कौन वृद्ध तापस सरोष
जैसे कर बैठी मैं कोई गम्भीर दोष?
क्या रहूँ भाँवरी भरती इसकी मन मसोस?
मैं कमल-पत्र पर, पिता! प्रात की चटुल ओस
झंझा में मुझे न झोंको