rajrajeshwar ashok
द्वितीय अंक : द्वितीय दृश्य
(मगध का कारागार। अँधेरी रात। पलँग पर बालक तिष्य, जिसकी अवस्था 7-8 वर्षों की होगी, सोया है। हाथ में तलवार लिये अशोक का प्रवेश)
अशोक – कहाँ है मेरा अंतिम आखेट! मगध के राज-उपवन का अंतिम काँटा! (शय्या के पास पहुँचकर और चादर तलवार से उलटकर) यह रहा, विष की अंतिम बूँद, पावक की अंतिम चिनगारी, सो ले, अच्छी तरह सो ले, फिर संभवतः यह नींद न मिले। (तिष्य जागता है)
तिष्य – कौन? भैया?
अशोक – भैया? (जोर से हँसता है) मैं किसी का भैया नहीं। मुझे भैया कहनेवाले निनन््यानबे शत्रु एक-एक कर मगध की युद्धभूमि में सो गये। एक तू ही शेष है। मैं तुझे भी नहीं छोड़ूँगा। तू जीवित रहकर मेरा काल भी बन सकता है।
तिष्य – मुझे कौन मार रहा है, भैया! तुम्हारे आँखें क्यों लाल हैं! क्या सिर में पीड़ा है? दबा दूँ!
अशोक – तू मेरे सिर की चिंता करता है? अपना सिर सँभाल, मैं तुझे मारने आया हूँ ,तिष्य!
तिष्य – तुम मुझे मारोगे? मैंने क्या अपराध किया है? तुमने तो मुझे आज तक फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ। माँ अलबत्ता कभी-कभी मारती थी। परंतु तुम्हारे हाथ में तो नंगी तलवार है, हाथ कट जायगा तब? मुझे तो माँ चाकू भी नहीं छूने देती थी, कहती थी, हाथ कट जायगा। कब आयेगी, भैया! मेरी माँ? उसे लोग कहाँ ले गये? ले जाते समय मैं कितना रोया था पर वह बोली भी नहीं। जब वह लौटकर आएगी, मैं भी उससे नहीं बोलूँगा।
अशोक – मूर्ख लड़के! क्या तुझे भय नहीं लगता?
तिष्य – भय लगता है। माँ के बिना बहुत भय लगता है। रात में कितनी बार मैं उसे याद करके रोने लगता हूँ। मुझे कल से अपने पास सुलाना, भैया!
अशोक – मैं रात के समय की नहीं पूछता। इस समय क्या तुझे भय नहीं लगता?
तिष्य – इस समय तो मेरा भैया मेरे पास है। इस समय डर कैसा?
अशोक – ओह, भगवान! तिष्य क्या तू अपनी माँ के पास जायगा?
तिष्य – हाँ, हाँ जरूर जाऊँगा। उसके बिना मेरा मन घड़ी भर भी नहीं लगता। कब चलोगे भैया?
अशोक – (आँसू पोछकर) भगवान! नहीं, मैं इसे जीवित नहीं छोड़ूँगा! तिष्य! तू मरने के लिये तैयार हो जा। मैं तुझे जान से मारने आया हूँ।
तिष्य – तुम मुझे जान से मारोगे? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? नहीं, नहीं, ऐसा मत करो। फिर तुम्हें भैया कौन कहेगा?
अशोक – मैं किसीका भैया नहीं बनना चाहता। उठ, सिर झुका। मरने को तैयार हो जा।
तिष्य – (डरकर) अच्छा! तो कल मार देना । आज जीवित रहने दो।
अशोक – मेरे पास इतना अवकाश नहीं है।
तिष्य – अच्छा एक घंटे के बाद।
अशोक – नहीं! (आगे बढ़ता है)
तिष्य – अच्छा, थोड़ी देर रुक जाओ! तब तक मैं अपने नये कपड़े पहन लूँ और अपने खिलौने ले आऊँ।
अशोक – कपड़े ? मूर्ख! क्या स्वर्ग में कपड़े पहन कर जायगा?
तिष्य – हाँ, हाँ, क्यों नहीं जाऊँगा? मेरी माँ को लोगों ने कितने अच्छे कपड़े उढ़ाकर भेजा था? तुम मुझे साधारण कपड़ों में स्वर्ग भेजना चाहते हो? मैं भी तो राजपुत्र हूँ। माँ क्या कहेगी?
अशोक – ओह! तू मेरा निश्चय ढीला कर रहा है। मुझे क्षण भर भी विलंब नहीं करना है। तिष्य! बकवास बंद कर।
तिष्य – अभी बंद करता हूँ। जो कहोगे सो करूँगा। बस मुझे मारो मत। यदि इसी लिये मारना चाहते हो कि मैं बहुत बोलता हूँ तो आज से तुम मुझे पत्थर जैसा मौन देखोगे।
अशोक – हाँ, मैं तुझे पत्थर जैसा मौन देखना चाहता हूँ। तिष्य! सँभल जा। (तलवार उठाता है)
तिष्य – भैया जरा ठहरो, मैंने सुना है तुम्हारे गद्दी पर बैठने के समय बड़ा भारी उत्सव होगा। बस मुझे उसीको देख लेने दो। फिर चाहे मार देना। जितनी बार जी चाहे, मार देना।
अशोक – (तलवार फेंककर) तिष्य! मुझे क्षमा कर। मैं मनुष्य हूँ, राक्षस नहीं। (हाथ फैलाकर) आ जा।
तिष्य – (उछल कर गोद में चला जाता है) भैया! मेरे अच्छे भैया!
(पर्दा गिरता है)