aayu banee prastavana

तुम्हारी चेतना के तीर पर प्यासा खड़ा हूँ मैं,

उफनती चाँदनी का ज्वार कैसे प्राण में भर लूँ!

हिमावृत गिरि-रुहों पर जो खड़ी भौंहें नचाती है

अगम की वह किरण सुकुमार कैसे तोड़ कर धर लूँ!

तुम्हारी भावना के द्वार पर पिछले प्रहर निशि के
तुम्हें है ज्ञात, किसने अर्गला को खटखटाया था!
विहग-सी वर्जनाएँ प्राण की जब छटपटाती थीं
युगों से सुप्त मन का तार किसने झनझनाया था!

दहकते रूप के सम्मुख ठगा-सा रह गया हूँ मैं
कहीं सपना न खो जाये पलक का स्पर्श यदि कर लूँ!

अतल गहराइयों से आ रही जो तान, किसकी है।
कहाँ, किस लोक में मुझको उड़ा ले जा रही हो तुम !
धरा मधुमक्षिका-सी भनभनाती दूर दिखती है
सुनहला चाँद कटि-तट पर लिये इठला रही हो तुम !

गहन इस शून्य में बस दो हृदय अपने धड़कते हैं
अधूरा प्रश्न जो मन का उसीका आज उत्तर लूँ!

पलक पर फैलता काजल, पवन में उड़ रहा अंचल,
थिरकती वरुणियों का दल, कथा कुछ और कहता है
अलक के दीप का झलमल, नयन का भीत कौतूहल
सकुचती चेतना का छल, व्यथा कुछ और कहता है

बहुत पीछे छुटी इस रात के दिक्काल की सीमा,
चतुर्दिक्‌ घिर रहे मधु-पाश से अमरत्व को वर लूँ!

तुम्हारी चेतना के तीर पर प्यासा खड़ा हूँ मैं,

उफनती चाँदनी का ज्वार कैसे प्राण में भर लूँ!

हिमावृत गिरि-रुहों पर जो खड़ी भौंहें नचाती है

अगम की वह किरण सुकुमार कैसे तोड़ कर धर लूँ!

1965