aayu banee prastavana

मेरा वश क्या टूट रही अभिव्यक्ति में!

साक्षी मैं तो केवल इस निर्वाण का

जितना गहरा स्नेह वर्तिका को मिला,

उतनी देर जलाया दीपक प्राण का

सूनी गगन-गुहा से निकली, काल-धनुष पर झूलकर
साँसों की लघु लहर लहरती आयी संसृति कूल पर
किसका था संकेत, निमिष में शत-शत दीपक जल उठे
अगणित ज्योति-शिखाएं फूटीं एक अतीन्द्रिय फूल पर
जितने विषमय तीर चुभाये कंठ में,

स्वर उतना मधुमय था मेरी तान का

जाने किन जन्मों की सुधि से, सूना अंतर भर दिया
करुणा की बाँसुरी सुनाकर, यह तुमने क्या कर दिया!
तुमने प्राणों की पीड़ा को बातों से बहला लिया
मन की आकुलता का भीगी पलकों से उत्तर दिया
अश्रु-सजल अधरों पर जो पलती रही

अर्थ ढूँढ़ता हूँ मैं उस मुस्कान का

आज समझ पाया क्यों तुमको देख हृदय था खिल गया
भटक रही थी कड़ी गीत की, भाव अचानक मिल गया
अब इसकी उलझन ही क्यों हो, मैं क्या हूँ, तुम कौन हो!
प्रथम प्रेम की एक शिखा पर सारा जीवन झिल गया
लिखती है इतिहास आजतक चेतना,

तुमसे मेरी पलभर की पहचान का

मेरा वश क्या टूट रही अभिव्यक्ति में!

साक्षी मैं तो केवल इस निर्वाण का

जितना गहरा स्नेह वर्तिका को मिला,

उतनी देर जलाया दीपक प्राण का

1964