aayu banee prastavana

मेरे मन में चित्र तुम्हारा पलता ही जाता है

काली रात, अड़े गिरि जिनके आगे राह नहीं है
पग-पग पर हिम की चट्टानें, गर्त अथाह कहीं हैं
सींधी खड़ी, कड़ी, पगडंडी, रपटन, जलमय झोंके
दृग में नींद, प्यास अधरों में, एड़ी दाह रही है

कौन पथिक ऐसे में भी पर, चलता ही जाता है!

तुमने छोड़ दिया था जिसको पल भर स्नेह दिखाकर
अपनी झुकी हुई चितवन से प्राण-शिखा सुलगाकर
अब वह ज्योति न बुझ पाती है गहन उपेक्षा-निशि में
लौट रहे झंझा के झोंके निष्फल शक्ति गँवाकर

बुझ-बुझ कर भी सुधि का दीपक जलता ही जाता है

कहीं मिलोगी तो अंतिम साँसों के आने तक भी!
मन की बात कभी कह दोगी लाख बहाने पर भी!
विश्व कभी तो लौटा देगा मुझको मेरी थाती!
मैं आऊँगा याद कभी तो तुम्हें भुलाने पर भी!

प्रेम न मिटता यद्यपि जीवन छलता ही जाता है

पाँवों की मेंहदी-सा सुधि का रंग नहीं छुटता है
अधर-सुधा-सा प्राण-सुधा का कोष नहीं लुटता है
मिट न सकेगा राग मधुर वह अंतर में बजता जो
मन रहता चिर-मुक्त भले तन बंधन में घुटता है

चिंता क्‍या यदि चाँद वयस का ढलता ही जाता है!

मेरे मन में चित्र तुम्हारा पलता ही जाता है।

1965