aayu banee prastavana
मैंने कब चाहा कि तुम्हारे अंगों से खुल-खेल सकूँ मैं
मुझे तुम्हारी सलज दृष्टि का एक स्नेहमय भाव बहुत है
अधरों में जो राग भरा वह माना बहुत मधुर लगता है
देख सलज मुस्कान हृदय में बजने ज्यों नूपुर लगता है
मतवाली चितवन से रस की धार उमड़ती है प्राणों में
नग्न भुजाओं में बँधने को उर कितना आतुर लगता है
गर्व मुझे पर नीरब रहकर इस पीड़ा को झेल सकूँ मैं
मुझे हृदय में पलनेवाला यह उफनाता भाव बहुत है
तुमने तो पहचान लिया है मेरे मन की दुर्बलता को
निज लावण्य-पाश पर प्रतिपल फिसल रही दृग-चंचलता को
ऊँगली के पोरों से जौ भर ही आगे रहकर ही तुमने
दिया न दबने और उभरने मेरे मन की विहवलता को
गहराती मन की पीड़ा को शब्दों में न उड़ेल सकूँ मैं
मुझे तुम्हारे प्राणों का यह छलनाभरा दुराव बहुत है
नभ को चाँद, धरा को ज्योत्स्ना, पर चकोर को मान मिला है
फूल-फूल पर मधुऋतु है पर कोयल को ही गान मिला है
रूप और यौवन जिसका भी, राग किंतु मेरा ही होगा
ज्योति कहीं भी रहे शलभ को जलने का वरदान मिला है
मेरे मन की ज्योति! भले ही जीत नहीं पाया मैं तुमको
मुझे तुम्हारी मुग्ध दृष्टि का एक पराजित दाँव बहुत है
मैंने कब चाहा कि तुम्हारे अंगों से खुल-खेल सकूँ मैं
मुझे तुम्हारी सलज दृष्टि का एक स्नेहमय भाव बहुत है
1965