aayu banee prastavana
मैंने तुम्हें वहाँ से ग्रहण किया है,
जहाँ तुम्हारा सदा कुँवारा मन है
जिन फूलों की महक भा गयी मुझको,
पहुँच सका उन तक न भ्रमर-दंशन है
झेले शत आघात न फिर भी जिसका,
अंतरतम छू सकी क्षोभ की रेखा
चिर-वसंत साधों का जिसमें हँसता,
मैंने वह आत्मा का नंदन देखा
चिर-अमलिन जो मिलन हमारे मन का,
चिर-यौवन का वहाँ सुहानापन है
अश्रु-पुलिन पर स्नेह-सुमन चुनता मैं,
प्राणों की घाटी में पहुँच गया हूँ
देख अछूती आत्मा की पावनता,
अपनी ही छाया से सकुच गया हूँ
तुमसे जो अनुभूति मिली है मुझको,
रज भी उससे आज रजत-चंदन है
नश्वर तनु-सुषमा का मोह न मुझको,
प्राणों की शाश्वत छवि मन में भर दो
जीवन-वधू अभागिन रहे भले ही,
सदा-सुहागिन कविता मेरी कर दो
बाँह खुली की खुली रहे, चिता क्या!
मैंने तुम्हें प्राण में किया वरण है
नया जन्म ले रहीं चेतना मेरी,
आज तुम्हारी अश्रु-सजल चितवन में
प्राण-विहण नव सुर में चहक रहे हैं,
लाजभरी स्वर्णिम समिति के मधुवन में
जीवन के तम-पथ में सहसा चमकी,
प्रथम प्रीति की ममताभरी किरण है
मैंने तुम्हें वहाँ से ग्रहण किया है,
जहाँ तुम्हारा सदा कुँवारा मन है
1964