ahalya

झनझना उठे यौवन की लय में तार-तार
मुनि ने प्यासी आँखों से देखा विवश, हार
आकर्ण सुमन-शर खींच सामने खड़ा मार
कहता जैसे, ‘मैं जग-विजयी, कब हुआ क्षार!
मर-मरकर जी जाता हूँ

‘जो सदा-उदासी, संन्यासी, गत-राग-द्वेष
धृत-भुजग-हार, अविकार, शंभु कापालि-वेष
मैं डरता नहीं करें वे शत नयनोन्मेष
जो गरल पी चुके हों हँसकर साधक अशेष
मैं उनको पी जाता हूँ