ahalya

यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
चढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर
हिम-ताप-विकल पावस कितने दृग से झर-झर
पथ के प्रवाह को मृदुल कठिनताओं से भर
आ-आकर चले गये भी

लज्जित-सी खड़ी कुटीर-द्वार पर सुमन-हार
रंजित-पग, अंजित-दृग, सज्जित-षोड़स-श्रृँगार
संध्या को फिरते गृह को मुनि, निज को निहार–
प्रेयसी-नयन में, पछताते-से छिन्न-तार
हँसते थे छले गये भी