ahalya

‘घुलते प्राणों में मेरे सौरभ के मृदु घन
खुलते जाते हैं जैसे नस-नस के बंधन
अंगों में कैसा यह अनजाना बेसुधपन!
जैसे साँसों में काँप रही मन की धड़कन
दीपक-सी भुक्‌-भुक्‌ करती

‘तरणी ज्यों डाँड-विहीन क्षुब्ध जल-निधि-तल में
चक्कर खा धँसती ही जाती हो पल-पल में
चेतना डूबती मेरी मुझमें, मैं जल में
दिखता न कहीं तृण भी इस भीषण हलचल में
जिसको आगे बढ़ धरती