ahalya

थी स्तब्ध सभा, नृप सूख गये ज्यों दिखा व्याल-
सुत विरह-शोक का, सम्मुख फण काढ़े कराल
खिंच गये दृगों में श्रवण-पिता-दूग लाल-लाल
बोले कातर-स्वर, ममताकुल मन को सँभाल
“मुनिवर ! क्या उत्तर दूँ मैं?

“वृद्धावस्था के पुत्र नहीं किसको प्यारे!
जी सकते प्राण कुमारों से होकर न्यारे!
ये प्राण प्राण के, जी के जी, दृग के तारे
मैं इन्हें छोड़ धन, धाम, धरा, वैभव सारे
जो माँगें, दूँ पल भर में